शिव पार्वती संवाद

भवानी बोलीं – हे ज्ञानियों में विशारद, आपने तपस्वी होकर भी जो मेरे पिता से यह बात कही इसका उत्तर मुझसे सुनिये। आप किस महात्मा के तप से तपते हैं। सब कर्मों की शक्ति तो प्रकृति है। उसी से सबकी उत्पत्ति, पालन और संहार होता है। हे भगवन्, आप कौन हैं और वह सूक्ष्म प्रकृति कौन है? इसका भी तो विचार कीजिये। प्रकृति के बिना लिंगरूपी महेश्वर किस प्रकार हो सकते हैं? प्रकृति के द्वारा ही तो आप पूजनीय और वन्दनीय हैं। इसका भी तो हृदय में विचार कीजिये।

जब पार्वती ने ऐसा कहा तब शिवजी हंस कर बोले- मैं परम तपस्या से ही प्रकृति को नाश कर देता हूं। मैं शंकर कृत से रहित और तत्त्व से स्थित हंू। सत्पुरुष प्रकृति से दूर रहते हैं। उन्हें तो लोकाचार से रहित और निर्विकारी होना चाहिये। जब लोक-व्यवहार से शिवजी ने ऐसा कहा तब कालीजी हृदय में हंस कर शंकर से मधुर वचनों में इस प्रकार बोलीं- हे योगिराज, आपने जो यह कुछ कहा है क्या वह प्रकृति नहीं है? फिर आप प्रकृति से परे कैसे हो सकते हैं? तत्त्वसे कहिये सब कुछ तो प्रकृति से ही नित्य बद्ध हो रहा है। सम्पूर्ण वचन और रचना तो प्रकृति से ही है। सुनना, खाना, देखना यह सब कुछ प्रकृति का ही कार्य है।

यदि आप प्रकृति से परे हैं, तो तपस्या क्यों करते हैं? यहां एकान्त तप की आवश्यकता ही क्या है? प्रकृति से गलित हो आप निज को नहीं जान सकते और यदि आप निज को जानते हैं तो तप की क्या अवश्यकता प्रत्यक्ष को अनुमान का प्रमाण ही क्या? हे शंकरजी।  मैं आपसे विवाद करना नहीं चाहती। किन्तु यदि आप प्रकृति से परे हैं तो यहां मेरे समीप रहने से आपको कुछ भी भय नहीं करना चाहिये।

जब पार्वती ने इस प्रकार सांख्य मत का प्रतिपादन कर शिवजी से कहा तो उन्होंने उन्हें अपनी सेवा करने की आज्ञा दे दी। फिर शंकर भगवान ने हिमालय को घर जाने की आज्ञा दी। वह अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर चले गये। अब पार्वती नित्य अपनी सखियों के साथ भगवान् शंकर के पास उनकी सेवा करने के लिये आतीं और नन्दीश्वर आदिक उन्हें कोई नहीं रोकते। सांख्य और वेदान्त के मत को लेकर शिव-पार्वती का यह संवाद बड़ा ही सुखकारी है। इन्द्रियों से परे होकर भी शंकर जी ने पार्वती को अपनी सेवा में लगा लिया। पार्वती नित्य अपने पिता के घर से आतीं और शंकरजी की षोडशोपचार पूजा कर फिर चली जातीं। इस प्रकार ध्यान में तत्पर महादेवजी की सेवा करती हुई पार्वतीजी ने बहुत सा समय व्यतीत किया। परन्तु निर्विकारी शंकर कभी भी विकार को न प्राप्त हुए। उन्होंने लावण्यता से व्याप्त, मनमोहक काली को नित्य अपने समीप पाकर भी स्त्री रूप में ग्रहण नहीं किया। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि जब यह काली तप-व्रत धारण करेंगी और जब इनमें किंचित् गर्व का बीज भी न रह जायेगा तब मैं इसे ग्रहण करूंगा।

ऐसा विचार कर महा लीलाधारी शंकर जी अपने ध्यान में लीन हो गये। तब ब्रह्माजी की आज्ञा से इन्द्रादिक देवताओं ने एक दिन कामदेव को वहां भेज दिया, परन्तु शंकर जी का मन न डिगा। फिर उन्होंने कामदेव को ही भस्म कर दिया। यह देख पार्वती जी का भी गर्व चूर्ण हो गया। फिर तो उन्होंने बड़ी कठोर तपस्या कर शंकरजी को प्राप्त किया और तारकासुर से दुःखी देवताओं का उन्होंने बड़ा उपकार किया।

इति श्रीशिव महापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का तेरहवां अध्याय समाप्त।  क्रमशः

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