गतांक से आगे...
बाईसवां अध्याय
कथा-प्रसंग
शिव नैवेद्य और विल्व पत्र महात्म्य
ऋषि बोले - हमने पूर्व में सुना है कि शिव नैवेद्य अग्राह्य अर्थात् ग्रहण करने योग्य नहीं है। अतएव हे मुने, इसका और विल्व पत्र के महात्म्य का निर्णय कीजिए।
सूतजी बोले- हे मुनियो, आप लोग धन्य हैं, क्योंकि आप सभी शिवजी के भक्त हैं अब सावधान होकर सुनिए, मैं वह सब प्रीति सहित कहूंगा, जोकि आप लोगों ने पूछा सुनिए, शिवजी का भक्त पवित्र, शुद्ध, सत्यव्रती और दृढ़ निश्चय वाला होना चाहिए। ऐसा भक्त शिवजी का नैवेद्य को देखकर तो पाप दूर से ही भाग जाते हैं और उसको भक्षण करने पर तो अनेकों पुण्य प्राप्त होते हैं। शिव नैवेद्य का भक्षण करने से तो हजारों और अरबों यज्ञों से बढ़कर शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है। जिसके घर में शिवजी के नैवेद्य का प्रसाद होता है उसका सारा घर तो पवित्र है ही, साथ ही वह अन्य घरों को भी पवित्र कर देता है। अतएव शिव नैवेद्य को आया हुआ देखकर प्रसन्नता पूर्वक उसे शिरोधार्य कर शिवजी का स्मरण करता हुआ बड़े प्रयत्न से उसे भक्षण करना योग्य है। शिव-नैवेद्य को अग्राह्य समझकर उसे ग्रहण करने में जो विलम्ब करता है उस मनुष्य को पाप लगता है। वह बड़ा पापी है और नरक में जाता है, जो शिव-नैवेद्य के ग्रहण की इच्छा नहीं करता। शिवदीक्षा से दीक्षित भक्त को शिव नैवेद्य भक्षण करना बड़ा शुभप्रद है। शिव नैवेद्य ग्रहण कर ब्रह्म हत्यारा भी पवित्र हो जाता है। हां, जहां चाण्डालों का अधिकार है वहां मनुष्य को भक्षण नहीं करना चाहिए और जहां चाण्डालों का अधिकार नहीं है वहां का प्रसाद भक्तिपूर्वक भक्षण करना चाहिए। बाणलिंग, लोहलिंग, सिद्धिलिंग और स्वयम्भूलिंग तथा सम्पूर्ण प्रतिमाओं में चाण्डाल का अधिकार नहीं है।
हे मुनीश्वरो, लिंग के ऊपर का द्रव्य अवश्य ही अग्राह्य है, किन्तु जो लिंग स्पर्श से अलग है वह पवित्र है। हे मुनियो यह तो मैंने आप लोगों से शिव-नैवेद्य का निर्णय कहा। अब विल्वपत्र का महात्म्य सुनें। यह विल्व महादेवजी का स्वरूप है और इसकी देवताओं ने भी बड़ी स्तुति की है। इसकी महिमा कठिनता से जानी जाती है। संसार में जितने भी पवित्र और प्रसिद्ध तीर्थ हैं वे सब विल्वमूल में ही निवास करते हैं, क्योंकि विल्वमूल में लिंग रूपी अवव्यय महादेव का वास रहता है और जो पुण्यात्मा इसकी पूजा करता है वह निश्चय ही शिवजी को प्राप्त होता है। ऐसे विल्वमूल में जो शिवजी को जल चढ़ाता है मानो वह सब तीर्थों में स्नान कर चुका और वह पृथ्वी में पवित्र है। जो मनुष्य विल्वमूल को गंधपुष्पादि से पूजता है वह शिवलोक को प्राप्त होता है तथा उसे सन्तान और सुख की वृद्धि होती है। जो आदरपूर्वक विल्वमूल में दीपक जलाता है तथा उसकी शाखा को लेकर हाथ से उसके नवीन पत्ते ग्रहण कर विल्व की पूजा करता है वह सब पापों से छूट जाता है तथा जो विल्वमूल में किसी शिव-भक्त को भक्तिपूर्वक भोजन कराता है उसे एक के भोजन का करोड़ गुना फल होता है। जो विल्वमूल में दूध घी सहित अन्न किसी शिव भक्त को देता है वह कभी दरिद्र नहीं होता। हे विप्रो, इस प्रकार का विल्व पूजन प्रवृत्ति और निवृत्ति, दोनों धर्म वालों के लिये उत्तम है।
इति श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता का बाईसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः