गतांक से आगे...
ग्यारहवां अध्याय
कथा-प्रसंग
शिवार्चन विधि और उसका फल
ऋषि बोले- हे सूतजी, यह तो आपने मुझे महादिव्य शुभलिंग की उत्पत्ति सुनाई जिसके प्रभाव से दुःखों का नाश हो जाता है। हे महाभाग, अब आप ब्रह्मा और नारद के संवाद के माध्यम से शिव पूजन की विधि बतलाइये जिसके करने से शिव जी प्रसन्न होते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्णों को शिवजी की पूजा का जो अधिकार है उसका क्या क्रम है। व्यास जी ने जैसा आपको बतलाया हो, उसे मुझे भी बतलाइये। सूतजी बोले- हे मुनीश्वर, जैसा आपने पूछा है ऐसा ही पहले श्रीव्यास जी ने सनत्कुमारजी से पूछा था और जिसे उपमन्यु ने सुना था। उसी को फिर व्यास जी ने मुझे पढ़ाया और उपमन्यु से श्रीकृष्ण ने सुना। तब जिसे सबसे पहले ब्रह्माजी ने ही कहा है, वहीं सब मैं ब्रह्मा-नारद संवाद के रूप में आपसे कहता हूं। ब्रह्माजी बोले- हे नारद, अब मैं तुम्हें लिंग पूजन संक्षेप में कहता हूं, ध्यान से सुनो। यदि विस्तार से कहूं तो सैकड़ों वर्षों में भी सम्पूर्ण नहीं होगा। शिवजी की पूजा परम भक्ति से करनी चाहिए। इसके करने से सारे अनिष्टों का नाश हो जाता है। मनुष्य को सन्तान-सुख की प्राप्ति होती है। चारों वर्णों को सब कामों और अर्थों की सिद्धि के लिये शिवजी की पूजा करनी चाहिए। प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर गुरुदेव और शिवजी का स्मरण करता हुआ सब तीर्थों का स्मरण करे और हरि भगवान का ध्यान करे। साथ ही मेरा और देवताओं तथा मुनियों का भी ध्यान करे। फिर शिव-स्तोत्र का पाठ करे और तब उठकर मल-त्याग के लिये दक्षिण दिशा को जावे। वहां एकान्त में मल त्याग करे और ब्राह्मण हो तो शुद्धि के लिये पांच बार हाथ धोवे, क्षत्रिय चार बार, वैश्य तीन बार और शूद्र दो बार हाथ धोवे। गुदा और लिंग में एक बार, बाये हाथ में दस बार, फिर दोनों हाथों में सात बार मिट्टी लगावे। इसी प्रकार दोनों पैरों में तीन बार लगाकर फिर तीन बार हाथ में लगावे। स्त्रियों को शूद्र की भांति मिट्टी लेकर हाथ-पैर धोना चाहिए। फिर अपने वर्ण के अनुसार दातौन करे। दातौन के लिये ब्राह्मण बारह अंगुल की दातौन करे। षष्ठा अमावस, नवमी और व्रत के दिन, रविवार को, सन्ध्या के समय और श्राद्ध के दिन दातौन न करे। तीर्थों में सविधि मंत्र सहित स्नान करे। फिर एकान्त और उत्तम स्थान में संध्या करे। फिर सविधि शिवजी को पूजे। परन्तु पहले गणेशजी का पूजन कर ले। तदनन्तर आसन पर बैठ शिवजी की स्थापना करे। तीन बार आचमन कर तीन प्राणायाम करे जिसमें मध्य में ़त्र्यम्बक शिवजी का ध्यान करे। जिसमें पांच मुख, दस भुजाएं, सब भूषणों से युक्त और जो बाघम्बर ओढ़े हुए हैं। शिवजी की पूजा से मनुष्य अपने को पवित्र बना ले। फिर प्रणव मंत्र अर्थात् ओंकार से ही षडांयास कर शिवजी की पूजा आरम्भ करे। जिसकी और बहुत सी विधियां गुरुदेव से प्राप्त कर ले। फिर शिवजी पर सहस्र जलधारा वेद मंत्रों द्वारा चढ़ावें। फिर शिवजी के ऊपर चन्दन और पुष्पादि चढ़ावे और प्रणव पूर्वक उनके आगे सुगन्धि की सामग्री दें। फिर नाना प्रकार के वेदमंत्रों से उनकी स्तुति करता हुआ उन्हें नमस्कार करे फिर अर्घ्य देकर शिवजी के चरणों में पुष्प बिखेर देवे। फिर देवेश को प्रणाम कर आत्मा से शिवजी की आराधना करे। प्रार्थना करते समय हाथ में पुष्प लेकर उनके सामने खड़े हों और अंजलि बांधे रहे और कहें कि हे शंकर जी मैंने ज्ञान से अथवा अज्ञान से आपकी जो कुछ भी पूजा की है वह सफल होवे और ऐसा कह कर हर्षित होकर शिवजी के ऊपर फिर पुष्प चढ़ावे और स्वस्तिवाचन कर अनेक प्रकार के आशीर्वाद ग्रहण करे। फिर शिवजी के ऊपर पूजा की चढ़ाई हुई सभी वस्तु हटाकर नमस्कार करे और अपराध क्षमा के लिये फिर आचमन करावे। फिर अघोर मंत्र से शिवजी की प्रार्थना करे और गले से अधिक शब्द निकाल कर उनकी पूजा करे। फिर अपने समस्त परिवार के साथ शिवजी को नमस्कार कर अत्यन्त प्रसन्न होता हुआ सारे कार्यों को सुख पूर्वक करे। इस प्रकार की शिव-पूजा से उसे पद-पद पर सर्व सिद्धियों की प्राप्ति हो सकती है। उसके दुःख मिट जाता है और शिवजी की कृपा से कल्याण पाता है तथा शिवजी की पूजा से उसके और भी गुणों की बृद्धि होती है। हे मुनिवर्य, यह शिवजी की पूजा की विधि कही, हे नारद, अब इसके पश्चात् और क्या सुनना चाहे हो?
इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्र-संहिता का ग्यारहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः