शिवजी द्वारा विष्णुजी को स्वामित्व प्राप्ति

सातवां अध्याय

                श्री महादेवजी बोले- हे पुत्रो! तुम कुशल से तो हो? कहो, हमारे शासन में सर्वत्र शान्ति तो है न? मैंने सुना है कि ब्रह्मा और विष्णु परस्पर युद्ध कर रहे हैं और तुम लोग बड़े दुःखी हो। अच्छा तो मैं अपने कुछ गणों को वहां भेजता हूं, तुम लोग चिंतित मत हो।

                यह कहकर श्री शिवजी ने अपने एक सौ गणों को वहां जाने की आज्ञा दी, साथ ही स्वयं महादेवजी भी अपने भद्र रथ पर सवार हो परिकर बांधकर चलने को तैयार हो गये। देवताओं सहित इन्द्र भी उनके साथ चल दिये। वहां पहुंच कर शिवजी आकाश मण्डल में बादलों में छिप कर ब्रह्मा और विष्णु जी का युद्ध देखने लगे। उनके सैनिकों ने भी अपने वाद्यों को बजाना बन्द कर अपना कोलाहल शान्त कर दिया और शिवजी का ही अनुगमन किया। महादेव ने देखा कि ब्रह्मा और भगवान विष्णु आपस मे युद्ध कर रहे हैं जबकि इनके एक दूसरे के प्रयुक्त होते ही त्रैलोक्य भस्म हो जाता है, तब प्रलय के इस रूप को देख निष्कल महादेव से रहा नहीं गया और वे इनका युद्ध शान्त करने के लिए महाअग्नि के तुल्य एक स्तम्भ रूप में हो दोनों के बीच में जा खड़े हुए। फिर तो उस महाअग्नि के प्रकट होने से वे दोनों शान्त हो गये। अस्त्रों के शान्त होने पर उस अद्भुत दृश्य को देखकर ब्रह्मा और विष्णु परस्पर कहने लगे कि यह इन्द्रयातीत अग्नि स्वरूप स्तम्भ क्या है, हमें इसका पता लगाना चाहिए।

                ऐसा निश्चय कर दोनों वीर उसकी परीक्षा के लिये शीघ्र ही वहां से चलें भगवान् विष्णु ने शूकर का रूप धारण किया और वे उसके मूल को जानने के  लिये नीचे पाताल लोक में चले गये। ब्रह्माजी ने हंस का रूप धारण कर ऊपर गमन किया। विष्णुजी पाताल में बहुत दूर तक चले गये। परन्तु स्तम्भ का उन्हें कुछ भी पता न चला कि उसकी जड़ कहां है। तब वह फिर युद्ध भूमि में लौट आये। उधर ब्रह्माजी ने आकाश में जाकर केतकी का फूल देखा। वे केतकी का पुष्प लिये विष्णुजी के पास आये, विष्णुजी ने उनके चरण पकड़ लिये। तब ब्रह्मा के छल को जानकर ईश्वर को वहां तत्क्षण प्रकट होना पड़ा और विष्णुजी ने उनके भी चरण पकड़ लिये। विष्णुजी की महानता से ईश्वर प्रसन्न हो गये, तब उन्होंने कहा -हे विष्णु तुम बड़े ही सत्यवादी हो, अतः मै तुम्हें अपनी समानता प्रदान करता हूं।

इति श्री शिव महापुराण विद्येश्वर-संहिता का सातवां अध्याय समाप्त। क्रमशः….

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