गतांक से आगे... सत्रहवां अध्याय कथा-प्रसंग
शिवजी की कैलास यात्रा
सूतजी ने कहा जब इस प्रकार ब्रह्माजी ने ये बतलाया तब नारदजी ने नमस्कार कर विनयपूर्वक फिर से पूछा कि हे ब्रह्माजी, शिवजी कैलास पर कब गए और महात्मा कुबेर के साथ उनकी मित्रता कहां हुई और वहां रह कर शिवजी ने क्या किया? उनका यह सब चरित्र मुझे बतलाइये। ब्रह्माजी कहने लगे कि हे नारद जिस प्रकार शिवजी कैलास पर गये और कुबेर के साथ मित्रता की, वह मैं तुम्हें सुनाता हूं उसे ध्यान पूर्वक सुनो। काम्पिल्य नगर में एक यज्ञदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था, जो यज्ञ विद्या में पारंगत था। उसके गुणनिधि नामक एक पुत्र था, जिसकी आयु उस समय आठ वर्ष की थी और उसका यज्ञोपवीत हो चुका था तथा उसने भी बहुत सी विद्याएं सीखी थीं परन्तु पिता से छिपकर वह जुआरी, खेलकूद में संलग्न और गाने बजाने वालों का साथी हो गया। उसने ब्राह्मणों के आचार त्याग, संध्या वन्दनादि से रहित ब्राह्मणों की निन्दा में रत और पाखण्डियों तथा भांड़ों का साथ कर लिया था। माता के कहने पर भी वह पिता के समीप नहीं जाता और पिता तो घर के कार्यों और दीक्षादि में संलग्न रहा करता और जब घर आकर अपनी स्त्री से पूछता कि इस समय गुणनिधि कहां गया है तो वह कह देती कि इसी समय कहीं बाहर गया है। कहीं स्नान या देवताओं के पूजन के लिये गया होगा? एक ही पुत्र वाली होने के कारण वह माता दीक्षित को ठग लेती। निदन गृह्यसूत्र के अनुसार दीक्षित ने उस पुत्र का विवाह भी करा दिया। माता नित्य पुत्र को समझाती कि तुम्हारे पिता बड़े ही महात्मा और क्रोधी भी हैं, तुम अपनी बुरी आदतों को छोड़ दो अन्यथा जब वह तुम्हारे इस चरित्र को जान लेंगे तब तुझको और मुझको दोनों को मारेंगे, तुम्हारा कुल बड़ा पवित्र है, तुम यह जुआ आदि निन्द्य कर्म क्यों करते हो? हे पुत्र, इसे त्याग देने में ही तुम्हारा कल्याण है, परन्तु माता के समझाने का उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। एक दिन उसने घर में रखी हुई पिता के हाथ की अंगूठी चुराकर किसी जुआड़ी के हाथ में दे दी। दैवयोग से दीक्षित ने उस अंगूठी को जुआड़ी के हाथ में देखा और उससे पूछा तो उसने कहा मैंने कोई तुम्हारी चोरी तो की नहीं है, किन्तु तुम्हारे पुत्र ने ही लाकर दी है, वह अंगूठी ही नहीं किन्तु उसने और जुआड़ियों को भी बहुत सा धन लाकर दिया है, परन्तु आश्चर्य है कि तुम जैसा पण्डित अपने पुत्र को क्यों नहीं जान सका? लज्जा के मारे दीक्षित का सिर झुक गया। वह सिर झुकाये और वस्त्र से अपना मुख ढंके हुए अपने घर गया और घर में जाकर पत्नी से बोला कि, हे दीक्षित की धूर्त पत्नी, भला यह तो कहो कि वह तेरा गुणनिधि पुत्र कहां है? वह कहीं भी हो, किन्तु मेरी अंगूठी कहां है जिसे उबटन करते समय तूने मेरे हाथ से ले ली थी। उसने कहा, मैंने कहीं रख दी है, स्मरण नहीं आ रहा है, क्योंकि मध्यान्ह का समय है और इस समय स्नानादि में संलग्न हूं। क्योंकि अतिथियों के आगमन का समय बीता जा रहा है जबकि पक्वान्नादि भी मुझे शीघ्र तैयार करने हैं। पूजा की सामग्री भी तो अभी एकत्र न कर सकी हूं। दीक्षित ने कहा - सत्य है, हे असत्य पुत्र को उत्पन्न करने वाली, तू बड़ी सत्यवादिनी है। इसी से तो जब-जब मैं पूछता था कि कहां गया है, तब-तब तू मुझे अपनी बातों में बहला दिया करती थी। पत्नी से ऐसा कहते हुए ब्राह्माण यज्ञदत्त घर की और चीजें ढूंढ़ने लगा। परन्तु जब एक भी चीज न मिली क्योंकि पुत्र ने उन्हें जुए में दे डाला था और उसकी माता पुत्र की ममता में पड़ कर उसके दोषों को छिपाती फिरती थी, तब सारा दोष अपनी पत्नी का जानकर उस ब्राह्मण ने जल लेकर स्त्री-पुत्र को तिलांजलि दे दी और किसी श्रोत्रिय ब्राह्मण की कान्ता से अपना दूसरा विवाह भी कर लिया। इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता का सत्रहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः