शिवजी का सती से विवाह

            ब्रह्मा जी बोले- हे तात, जब आप कैलास पर स्थिर शिवजी के पास पहुंचे तब शिवजी से आपकी कैसी-कैसी बातें हुईं तथा शिवजी ने क्या किया? ब्रह्माजी कहने लगे- शिवजी को सती की प्राप्ति में सन्देह था। वे मेरे पहुंचने पर मुझ संसार के रचयिता से इसी प्रकार की प्राकृतिक मनुष्य के समान शीघ्र ही मुझसे सती की प्रेमपूर्ण बातें पूछने लगे और यह भी पूछा कि दक्ष ने क्या कहा है? काम मुझे विदीर्ण कर रहा है। मैं निरन्तर सती का ही ध्यान रूप कार्य करता हूं। अतएव हे ब्रह्मा, वह सती जैसे भी मेरी प्रिया बने आप वैसा ही प्रयत्न कीजिये। तब मैंने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा हे वृषभध्वज, आपका कार्य सिद्ध होगा। मेरे पुत्र दक्ष ने तो पहले ही आपको अपनी पुत्री देने संकल्प कर लिया है। उसने कहा है कि शिवजी स्वयं ही मुझसे मेरी कन्या की प्रार्थना करते हैं तो मैं उन्हें अवश्य दूंगा। शिवजी जब भी चाहे शुभ लग्न और मुहूर्त में मैं उन्हें अपनी कन्या भिक्षा के रूप में देने को तैयार हूं। अतः हे वृषभध्वज, अब आप शुभ लग्न और शुा मुहूर्त का विचार कर उनके घर चल कर पाणिग्रहण्ी कर लीजिये।

            इस पर शिवजी हंस पड़े और उन्होंने कहा- अच्छा, तुम्हारे और नारद जी के साथ मैं उनके घर चलूंगा। इस अवसर पर आप अपने मरीचि आदि पुत्रों को भी बुला लीजिये और मेरे गणों को भी साथ ले लीजिये, तब मैं दक्ष के घर चलूं। मैंने अपने मरीचि आदि पुत्रों का स्मरण किया, वे सब मेरे मानसिक पुत्र बड़ी प्रसन्नता से शीघ्र ही मेरे पास आ गये और शिवजी के स्मरण करते ही गरुड़ पर बैठे भगवान विष्णु भी लक्ष्मी सहित चले आये। फिर तो चैत्र शुक्ल त्रयोदशी रविवार के दिन फाल्गुनी नक्षत्र में शिवजी ने वह यात्रा कर दी। मैं ब्रह्मा और विष्णु आदि सभी देवता और मुनि उनके साथ हुए। मार्ग में जाते हुए शिवजी की अत्यन्त शोभा हुई। देवताओं और नन्दीश्वर, व्याघ्र, सर्प और जटा तथा चन्द्रकला आदि सब यथायोग्य उनके भूषण बन गये। फिर नन्दीश्वर पर आरूढ़ शिवजी देवताओं सहित शीघ्र ही दक्ष के घर पहुंचे। दक्ष ने सबको सुन्दर आसनादि देकर बड़ा सत्कार किया। फिर मेरे पुत्र दक्ष ने मुझसे कहा कि अब आप विवाह-सम्बन्धी सब कार्य कराइये। मैंने ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कह कर सब कार्य कराया। दक्ष ने नवग्रहों के बल से शुभ लग्न में शिवजी के लिये सती का कन्या-दान किया। शिवजी ने सर्वांग सुन्दरी दक्षपुत्री का पाणिग्रहण किया। समस्त देवता और मुनि स्तुतियों द्वारा शिवजी को प्रसन्न करने लगे। नृत्य-गान का बड़ा उत्सव हुआ। देवताओं और मुनियों को परमानन्द प्राप्त हुआ। शिवजी को अपनी कन्या का दान कर दक्ष भी कृतकृत्य हो गये। शिव और सती भी प्रसन्न हो गये और बहुत-सा मंगलाचार हुआ।

            इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का अट्ठारहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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