शिवजी का सती-वियोग

            श्रीराम बोले – हे देवि, एक समय बहुत पहले, शिवजी ने अपने लोक में विश्वकर्मा को बुलाकर उसमें एक मनोहर गोशाला बनवाई और उसमें एक मनोहर विस्तृत भवन और एक दिव्य सिंहासन तथा सबसे अद्भुत एक दिव्य श्रेष्ठ छत्र भी बनवाया। फिर इन्द्रादिक सब देवताओं, शास्त्रों, पुत्री सहित ब्रह्मा, मुनियों, देवियों और अप्सराओं को बुलवाकर अनेक वस्तुओं का भी संग्रह करवाया। नागों की सोलह कन्याओं ने मंगलाचार किया और संगीतज्ञों ने वीणा, मृदंग आदि बाजे बजवाकर संगीत गान कराया। इस प्रकार का बड़ा समारोह और उत्सव किया। राज्याभिषेक की सारी सामग्रियां एकत्रित हुईं और तीर्थों के जल से भरे पांच घड़े मंगाये तथा अन्यान्य दिव्य सामग्रियां भी अपने गणों से मंगवाया। फिर बड़े घोर शब्दवाला शंख बजाकर प्रसन्नता से वैकुण्ठवासी विष्णु को बुलवाया। फिर एक उत्तम मुहूर्त देखकर भक्ति से पूर्ण शंकरजी ने विष्णुजी को उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बिठा बहुत से अलंकार पहनाये और कौतुक तथा मंगल करके उनके सिर पर मुकुट बांध उनका अभिषेक किया। उन्हें अपना अखण्ड ऐश्वर्य दिया। फिर उन स्वतन्त्र भगवान शंकर ने उनकी बड़ी स्तुति की और जगत्कर्त्ता ब्रह्मा से कहा- मेरी आज्ञा से अब सब देवताओं के साथ तुम भी इन्हें प्रणाम करो और वेद ने जैसे-जैसे मेरा वर्णन किया है वैसे ही अब इनका वर्णन करो।

            ब्रह्मा से ऐसा कह भगवान शंकर ने भक्ति से प्रसन्न हो विष्णुजी को प्रणाम किया। उस समय ब्रह्मादिक सभी देवताओं और मुनियों ने भी विष्णुजी की वन्दना की। शिवजी ने विष्णु जी को अनेकों वरदान दिये। सभी लोकों का कर्त्ता, भर्त्ता और संहर्त्ता बनाया। धर्म, अर्थ, कामना देने वाले और दुष्टों पर शासनकर्त्ता बनाया। अपनी तीनों शक्तियां प्रदान कीं। त्रिभुवन में स्वतन्त्र और अनेकों लीला करने वाला कहा। अपनी सारी माया दी। अनेकों अवतार लेकर संसार का पालक बनाया। अपने लोक में गोलोक नामक स्थान दिया और कहा- विष्णो, पृथ्वी पर आपके जितने भी अवतार होंगे, मेरे भक्त आदरपूर्वक उनका दर्शन करेंगे। इस प्रकार विष्णुजी को अखण्ड ऐश्वर्य देकर अपने गणों सहित शंकर जी कैलास पर चले गये। उसी समय से भगवान विष्णु ने गोप वेश धारण किया। गोपों, गोपियों और गौओं के स्वामी बने। इस समय शिवजी की आज्ञा से उन्होंने चार अवतार धारण किये है। पहला मैं राम, अन्य तीन भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न हैं। हे देवि, मैं पिता की आज्ञा से लक्ष्मण और सीता सहित वन में आया हूं। दैव वश यहां आकर मैं दुःखी हो गया। किसी राक्षस ने मेरी पत्नी सीता को चुरा लिया है। भाई के साथ मैं वियोगी बना उन्हें इस वन में ढूंढ रहा हूं। हे माता, आपका दर्शन पाकर मेरा कल्याण हुआ। यदि आपकी कृपा रही तो सर्वथा मंगल ही होगा। आपकी कृपा से मैं उस राक्षस को मार सीता को प्राप्त करूंगा। आज बड़े भाग्य से आप दोनों का दर्शन मुझे प्राप्त हुआ। जिस पर दोनों की कृपा हो वह धन्य है।

            इस प्रकार बहुत कुछ कहकर सतीजी को प्रणाम कर रामचन्द्रजी वन में विचरने लगे। सतीजी ने उन्हें शिवभक्त जान उनकी बड़ी प्रशंसा की, फिर अपने किये पर पश्चाताप करती हुई शिवजी के पास लौट आईं। सतीजी को चिन्ता थी कि अब शिवजी के समीप जा उन्हें क्या उत्तर दूंगी। ऐसा बारम्बार विचार कर सतीजी पछताने लगीं। फिर शिवजी के पास जाकर उन्हें हृदय से प्रणाम किया। शोक से व्याकुल उनके मुख की शोभा क्षीण हो गयी। तब उन्हें दुःखित देख शिवजी ने पूछा-कुशल तो है न? कहिये, आपने किस प्रकार परीक्षा ली।

            सती ने सिर झुका लिया और कहा- कुछ नहीं। यों कह वह शोक में सन्तप्त हो शिवजी के पास जा खड़ी हुईं। महायोगी शिव ने ध्यान से सती का चरित्र ज्ञात कर लिया। उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सोचा-अब यदि मैं सती से पूर्वतव् स्नेह करूं तो मेरी शुद्ध प्रतिज्ञा भंग हो जायेगी। वेदधर्म के पालक शिवजी ने यह विचार कर सती को मन से त्याग दिया। फिर सती से कुछ न कह कर कैलास की ओर बढ़े। मार्ग में सबको और विशेष कर सतीजी को सुनाने के लिये यह आकाशवाणी हुई कि, हे परमेश्वर, हे महायोगिन्, आप धन्य हैं। आपके समान तीनों लोकों में ऐसा प्रणपालक कोई नहीं है।

            यह आकाशवाणी सुनते ही सती कान्तिहीन हो गयीं। फिर उन्हांने शिवजी से पूछा- हे नाथ, आपने कौन सा प्रण किया है, हे परमेश्वर, मुझसे कहिये। परन्तु सतीजी के पूछने पर भी शिवजी ने ब्रह्मा, विष्णु के आगे की हुई अपनी पूर्व प्रतिज्ञा को न बतलाया। फिर तो सतीजी ने अपने प्राणप्रिय शंकर का मन में ध्यान करके अपने त्याग की सारी बातें जान लीं। शिवजी द्वारा अपना त्याग समझ उनके मन में बड़ा दुःख हुआ। वह शोक से व्याकुल होकर शीघ्र ही दीर्घ निःश्वास लेने लगीं। तब वह सब समझ शिवजी सती का मन बहलाने के लिये अनेकों कथायें कहने लगे। फिर कैलास में पहुंच समाधि लगा अपने रूप का ध्यान करने लगे। सती भी उनके निकट ही खिन्न चित्त से बैठी रहीं। सती और शिव के इस चरित्र को किसी ने नहीं जाना। बहुत समय व्यतीत हो गया। जब शिवजी ने समाधि खोली तो निकट जाकर सती ने शिवजी को प्रणाम किया। उदार बुद्धि शंकरजी ने उन्हें अपने सम्मुख आसन दिया बहुत सी मनोहर कथाएं कह कर सती को विमुक्त किया। सती के हृदय में पहले ही जैसा सुख हो गया। परन्तु शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा न छोड़ी। इस कथा से मूर्ख जन शिव-सती का वियोग समझते हैं। परन्तु वास्तव में उनका वियोग नहीं हुआ। क्योंकि जो कुछ होता है सब उनकी इच्छा से ही होता है। फिर वियोग कैसा? सती और शंकर का चरित्र कोई नहीं जान सकता।

            इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का पचीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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