शिवजी का भिक्षुक रूप में हिमाचल और मैना के पास जाकर पार्वती की याचना करना

             नारदजी बोले – हे तात, आप धन्य हैं, जो कृपा कर इस अद्भुत कथा को आपने मुझे सुनाया। अब कृपा कर आप मुझे यह सुनाइये कि जब शिवजी अपने कैलास को चले गये तब सर्वमंगला पार्वती ने क्या किया और वह कहां गयीं? हे महामते! वह सब बात आप मुझसे कहिये।

             ब्रह्माजी बोले- हे तात, महादेव जी के कैलास चले जाने पर पार्वती महादेव-महादेव कहती हुई अपने पिता के घर चली गयीं। तब पार्वती का आगमन सुन कर प्रेम से विह्वल हो हिमालय अपनी पत्नी मैना के साथ विमान पर बैठ स्वागतार्थ आगे आये। पार्वतीजी के सब भाई, अनेक संबंधी और पार्वती जी की बहुत सी सखियां बड़े हर्ष से जय-जयकार करती हुई मांगलिक वस्तुओं को ले आगे आयीं। नगर में सजावट और उत्सवादिक की धूम मच गई। इसी समय पार्वती अपने नगर में आयीं। अपने माता-पिता के दर्शन किये। हर्षित हो उन्हें प्रणाम किया। माता-पिता ने पार्वती को सम्पूर्ण आशीर्वाद देकर अपनी गोद में बिठा लिया, फिर हे पुत्री, ऐसा कह कर रोने लगे। फिर पार्वती जी की सखियों तथा भाई की स्त्रियों ने हर्ष सहित पार्वती का दृढ़ालिंगन किया और उन्होंने उनके रूप, सदाचार और तप की प्रशंसा की। सब हर्षित हो चन्दन तथा पुष्पों से पार्वती जी की स्तुति करने लगे। ब्राह्मण प्रसन्न हो सज्जित रथ में पार्वती को वैठा कर नगर में आये। घर पर पार्वती की सखियों, अन्य स्त्रियों तथा जो उस समय वहां उपस्थित थे उन सबने बड़े हर्ष से उन्हें घर में प्रवेश कराया। स्त्रियां मंगलाचार करने लगीं और ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे। मैना और हिमाचल के हर्ष का अन्त न रहा। आज उन्होंने अपने घर को सफल समझा और यह कहा कि कुपुत्र से पुत्री ही अच्छी। हे नारद, हिमालय ने तुमको धन्य-धन्य कहा। ब्राह्मणों और बन्दीजनों को बहुत सा धन दिया। ब्राह्मणों से मांगलिक पाठ करवाया और बड़ा उत्सव मनाया। पार्वती जी अपने भाई-बहनों के साथ घर के आंगन में बैठकर वार्तालाप करने लगीं। हिमाचल प्रसन्न हो गंगा-स्नान करने गये।

             इसी समय लीलाकुशल भगवान् शंकर एक अच्छे नट का भेष बना मैना के  पास आ, प्रांगण में अनेकां प्रकार के नृत्य करते हुए सुमनोहर गीत गाने लगे। श्रृंगी और डमरू बजाने लगे। अनेक प्रकार के वीणादि बाजों की ध्वनि की। स्त्री-पुरुष दर्शकों की भीड़ लग गयी। मेनका सहित सभी लोग मोहित हो गये। शंकर के इस रूप को देखकर पार्वती जी को मूर्च्छा आ गयी, क्योंकि शिवजी का रूप त्रिशूलादि चिन्हों से बड़ा ही मनोहर था। इस समय परम शोभायमान शिवजी प्रसन्न हो यही कह रहे थे कि वर मांगो।

             पार्वती जी ने मन ही मन शिवजी को प्रणाम कर यह वर मांगा कि ‘आप मेरे पति होवें।’ शिवजी यह वर देकर फिर नृत्य करने लगे। तब पार्वती जी की माता मैना उत्त्समोत्तम रत्नों को सुवर्ण के थाल में रखकर प्रेमपूर्वक उस नर्तक को देने गईं। परन्तु शिवजी ने उनके वैभव से प्रसन्न होकर भी उसे तो स्वीकार नहीं किया और भिक्षा में पार्वती जी को मांगा और फिर गाने और नृत्य करने लगे। मैना क्रुद्ध हो उस भिक्षु को ताड़ना देती हुई बोलीं कि तू शहर से निकल जा। इतने में हिमालय भी गंगा से लौटे तो घर के आंगन में नृत्य करते हुए भिक्षुक को देखा और यह सुना कि मैना क्रुद्ध हो उसे बाहर निकालने के लिये नौकरों को आज्ञा दे रही है। परन्तु अग्नि से देदीप्यमान उस भिक्षुक को कोई बाहर न निकाल सका। अब वह अपनी अनेक लीलाओं और अनन्त प्रभाव से हिमाचल को प्रसन्न करने लगे। हिमाचल ने देखा कि यह भिक्षुक तो किरीट-कुण्डल धारण किये, पीतवस्त्र पहने और चार भुजाएं धारण किये विष्णु के रूप में हैं और हिमाचल ने पूजा के समय जो कुछ भी पुष्पादि चढ़ाये थे वे उसके सिर और शरीर पर स्थित हैं। फिर गिरीश्वर ने उसे जगत्स्रष्टा ब्रह्मा के भी रूप में देखा। फिर सूर्य के भी रूप में देखा। फिर उसका यह अद्भुत रूप भी देखा। फिर निरंजन, निराकार, निरीह और इस प्रकार बड़े अद्भुत रूप में भी देखा। उसी समय उस भिक्षुक ने हिमालय से भगवती दुर्गा की याचना की। शिवमाया से मोहित हिमालय ने उसे स्वीकार न किया और भिक्षुक ने दूसरा कुछ ग्रहण भी न किया और फिर अन्तर्धान हो गया। तब हिमाचल और मैना को ज्ञान प्राप्त हुआ कि यह तो प्रभु शंकर ही आये थे, पर हम दोनों उनसे वंचित ही रहे और वे अन्तर्धान हो गये। पश्चात् उन्होंने विचार कर शिवजी में अपनी दृढ़ भक्ति स्थापित की।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का तीसवां अध्याय समाप्त।  क्रमशः

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