गतांक से इकतालीसवां अध्याय कथा-प्रसंग
शिवजी का प्रसन्न हो दक्ष को जीवित करना
ब्रह्माजी बोले – जब इस प्रकार देवताओं सहित विष्णुजी ने शंकर भगवान की स्तुति की तो उससे प्रसन्न हो करुणा सागर भगवान शंकर देवताओं को धैर्य बंधाते हुए बोले- हे देवश्रेष्ठो, सुनो, मैं तुम पर क्रुद्ध हूं फिर भी उसे सहन करता हूं। क्योंकि सब कुछ मेरी ही माया है। बालकों का अपराध चिन्तन नहीं किया जाता। उन्हें सावधान करने के लिये केवल दण्ड ही दिया जाता है। मैंने दण्ड मात्र दिया है। दक्ष के यज्ञ को मैंने नहीं विध्वंस किया है, किन्तु जो दूसरों का बुरा चाहता है उसी का बुरा होता है। दक्ष ही उस यज्ञ का सिर है। अतएव उसका बकरे का सा सिर होगा। भग देवता सूर्य के नेत्र से यज्ञ भाग को देखेंगे तथा पूषा के टूटे हुए दांत हो जायेंगे और यजमान के दिये हुए यज्ञ के भाग का उपभोग कर सकेंगे। यह मैं सत्य कहता हूं। मेरा विरोधक भृगु फिर बकरे की सी दाढ़ी पायेगा और मेरे गणों द्वारा मारे गये देवताओं के टूटे अंग भी ठीक हो जायेंगे तथा सभी अध्वर्यु प्रसन्न होंगे। यह कह कर वेदों के अनुसरणकर्त्ता, परम दयालु, चराचर पति सम्राट शंकरजी मौन हो गये।
तब उनका यह कहना सुन विष्णु आदि सहित मुझ ब्रह्मा को बड़ी प्रसन्नता हुई तथा सबने शिवजी को धन्यवाद दिया। फिर देवर्षियों सहित शिवजी को उस यज्ञ में आने के लिये आमंत्रित कर हम लोग यज्ञ के उसी स्थान में आये, जहां कनखल नामक स्थान में दक्ष ने यज्ञ आरम्भ किया था। उसी समय भगवान शंकर ने वहां पहुंच कर वीरभद्र द्वारा भंग यज्ञ का निरीक्षण किया और देखा कि स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति, सरस्वती और सभी ऋषि, पितर, अग्नि आदि टूटे-फूटे और कई मरे पड़े हैं। यज्ञ की यह दशा देखकर वीरभद्र को बुला भगवान शंकर ने हंस कर उससे यह कहा- हे महाबाहो वीरभद्र, यह तुमने क्या किया? हे तात, तुमने ऋषियों को इतना कठिन दण्ड इतना शीघ्र दे डाला। अच्छा, तो अब तुम शीघ्र दक्ष का वह मृतक शरीर लाओ, जिसने इस यज्ञ को आरम्भ किया था। यह यज्ञ तो अच्छा था, परन्तु इसका फल विपरीत हुआ। शिवजी के इतना कहते ही वीरभद्र ने दक्ष का सिर रहित शरीर लाकर शीघ्र ही उनके सामने रख दिया। तब उसे सिर रहित देख शिवजी ने वीरभद्र से कहा कि इसका सिर कहां है?
वीरभद्र ने कहा-उसे तो मैंने पहले ही अग्नि में हवन कर दिया है। शिवजी ने देवताओं से कहा- देखो मैंने जो पहले कहा था, वही हुआ। फिर भगवान शंकर ने यज्ञाचित पशु अर्थात् बकरे का सिर लेकर प्रजापति दक्ष के सिर पर जोड़ दिया और ज्योंही कृपा-दृष्टि से देखा वह जीवित होकर उठ बैठा। उसने उठते ही प्रसन्नचित्त हो शंकर भगवान का दर्शन किया। उसका कलुषित हृदय निर्मल हो गया। फिर ज्योंही उसने चाहा कि भगवान शंकर की विविध प्रकार से स्तुति करें, उसी समय उसे पुत्री सती का वियोग स्मरण हो आया और मारे दुःख के उसका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। जिससे वह उस समय स्तुति न कर सका। परन्तु कुछ ही देर बाद उसका शोक ज्योंही दूर हुआ वह लोक कल्याण कारक भगवान शिव की विनम्र भाव से स्तुति करने लगा। उसकी स्तुति सुन भगवान शंकर प्रसन्न हो गये और पुनः विष्णु और मुझ ब्रह्मा ने भी इन्द्रादि देवताओं और लोकपालों सहित सावधान चित्त से कमलमुख शंकरजी की स्तुति की।
इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का इकतालीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः