गतांक से आगे तेईसवां अध्याय कथा-प्रसंग
शास्त्रों के मोक्षादि वर्णन
ब्रह्माजी बोले – एक समय विवाहोपरान्त शिव-सती बैठे वार्तालाप कर रहे थे कि शिवजी को प्रसन्न देख सती ने बड़ी नम्रता और भक्ति के साथ कहा- हे करुणा सागर महादेवजी, मुझ पर कृपा कीजिए। मैं आप निर्विकारी की प्रिया हूं। बड़ी भक्ति से आप मुझे मिले हैं। आपसे विहार कर मैं बड़ी सन्तुष्ट भी हो गयी हूं। इससे अब मेरा मन तत्त्वों की खोज करता है। हे हर, हर, जीव संसार से कैसे पार पा सकता है। विषयी जीव भी जिसे पाकर परमपद की प्राप्ति कर लेता है-वह तत्त्व क्या है, मुझे सुनाइये।
हे मुने, जब महेशानि ने भक्तिपूर्वक शंकर जी से जीवों के उद्धार की इच्छा की तो शिवजी प्रेम पूर्वक सती से बोले- हे दक्षायणि, हे महेश्वरि, विज्ञान ही परम तत्त्व है। दूसरा स्मरण, केवल ब्रह्म का स्मरण। इन दो तत्त्वों को कोई बिरला ही जानता है ऐसा कोई भी त्रिलोक में नहीं है। यदि हो तो मैं उसका दास हूं। परन्तु मैं तुम्हें बतलाता हूं। ब्रह्म साक्षात् परे से परे है। भक्ति विज्ञान की माता है। भक्ति का विरोधी कभी भी विज्ञान नहीं पा सकता। मैं उसी भक्ति के अधीन हूं। यह भक्ति भी दो प्रकार की है। सगुण और निर्गुण। इसमें पहली श्रेष्ठ है, दूसरी और भी श्रेष्ठ है। इसके भी दो-दो भेद हैं। फिर इसमें छः और उसके अनेकों भेद पण्डितों ने कहे हैं। इनमें से भक्ति के नौ अंगों को मैं कहता हूं। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य-भाव, अर्चना, वन्दना, सख्यता और आत्मसमर्पण। सब युगों में भक्ति की विशेषता हैं परन्तु कलियुग में तो भक्ति विशेष फलदायक होती है। इसकी प्रत्यक्षता से ही तो में इसके वश में हूं। संसार में जो मेरी भक्ति करता है, मैं सदैव उसकी सहायता करता हूं। उसके सारे विघ्नों को हरता और उसके शत्रुओं को दण्ड देता हूं। इसीलिये तो मैंने काम को अपने तीसरे नेत्र से जला दिया था। भक्त के लिये ही तो मैंने रावण का त्याग कर दिया और कुछ भी पक्षपात न किया। भक्ति के कारण ही तो मैंने दुष्ट व्यास को नन्दीश्वर से दण्ड दिलवा कर काशी से बाहर करा दिया। अधिक क्या कहूं, मैं भक्ति के ही वश में हूं भक्ति की ऐसी महिमा सुनकर दक्ष पुत्री सती बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने मन में ही प्रणाम किया। फिर भक्ति-काण्ड में श्रद्धा को पूजा। लोक में सुखदायक और जीवों के उद्धार की बात पूछी। जन्म, मन्त्र शास्त्र और विशेषतया उनका महात्म्य पूछा।
सती के ऐसे प्रश्नों को सुनकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने जीवों के उद्धारार्थ प्रेमपूर्वक कहना आरम्भ किया। उन्होंने इतिहास, भक्तों का महात्म्य और वर्णाश्रम धर्म सहित राजधर्म, पुत्र और स्त्रीधर्म आदि वेदों, शास्त्रों और ज्योतिष शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र तथा अन्यान्य शास्त्रों को तत्त्वतः कहा। इस प्रकार हिमालय पर क्रीड़ा करते हुए सती और शिव ने अन्यत्र भी दूसरे स्थानों में विहार किया।
इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का तेईसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः