वीरभद्र और महाकाली की उत्पत्ति

श्री नारद जी बोले- हे ब्रह्माजी, उस आशवाणी को सुनकर दक्ष तथा अन्यों ने क्या किया? वह सब मुझे सुनाइये। ब्रह्माजी ने कहा- उस वाणी को सुनकर सभी देवता और मुनि आश्चर्य करने लगे और शिवजी की माया से किसी के मुंह से एक शब्द भी न निकला। इधर भृगु के मन्त्रों से उत्पन्न भृगु गणों द्वारा भगाये गये शिवजी के गण शिवजी की शरण में गये और सती के शरीर त्याग आदि का सारा वृत्तान्त  कह सुनाया। यह सुन महाप्रभु शंकरजी ने इस वृत्तान्त की वास्तविकता का सम्पूर्ण समाचार जानने के लिये नारदजी का स्मरण किया। हे नारद, तब तुम शीघ्र ही वहां जा पहुंचे। शंकर जी ने तुम्हारी प्रशंसा करके सतीजी का वृत्तान्त पूछा। तुमने शीघ्र ही वह सब वृत्तान्त कह सुनाया। जोकि दक्ष के यज्ञ में हुआ था। उसे सुन पराक्रमी शंकरजी के क्रोध का अन्त न रहा। लोक-संहारकारी शंकरजी ने अपनी एक जटा उखाड़ कर उसे एक पर्वत पर दे मारा, जिससे उसके दो खण्ड हो गये और महाप्रलय के समान एक भयंकर शब्द के साथ महा बलशाली वीरभद्र उत्पन्न हो गये, फिर जटा के दूसरे भाग से अत्यन्त भयंकर और करोड़ों भूतों से घिरी हुई महाकाली उत्पन्न हुईं। इस प्रकार दोनों ही अपने तेज से प्रज्वलित होने लगे।

तदनन्तर महाबली वीरभद्र ने शिवजी को प्रणाम कर हाथ जोड़ निवेदन किया, कि हे प्रभो, मैं क्या करूं, मुझे शीघ्र आज्ञा दीजिये। यदि आप कहिये तो मैं क्षण भर में ही समुद्रों को सोख डालूं, पर्वतों को चूर्ण कर दूं, ब्रह्माण्ड को भस्म कर डालूं अथवा देवताओं और मुनीश्वरों को भस्म कर दूं। आपकी कृपा से मेरे लिये कोई भी कार्य करना अशक्य नहीं है। मेरे जैसा पराक्रम न किसी में हुआ है न होगा। हे शंकर, इस समय मेरा दक्षिण अंग फड़क रहा है, आप मुझे जहां भेजेंगे वहीं विजय होगी।

यह सुन कर मंगलपति भगवान शिव किंचित संतुष्ट हुए और वीरभद्र को आशीर्वाद देकर बोले- हे तात, वीरभद्र, ब्रह्मा का पुत्र दुष्ट दक्ष एक यज्ञ कर रहा है, जो बड़ा अहंकारी और विशेष कर मेरा विरोधी है। तुम जाकर उसके यज्ञ को विध्वंस कर दो और देवता, यक्ष, गन्धर्व जो कोई वहां हों उन सबको आज भस्म कर डालो तथा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, यम कोई भी बचने न पावे। तुम्हारे वहां पहुंचने पर विश्वेदेवा आदि तुम्हारी स्तुति करेंगे। परन्तु तुम उन्हें भी भस्म करके शीघ्र ही मेरे पास चले आना। जो देवता दधीचि ऋषि के कहने पर भी मेरे विरोधक बने वहां बैठे  हैं उन्हें व्याकुल कर अग्नि में जला डालना और हे वीर, दक्ष को तो उसकी पत्नी और बान्धवों सहित जला कर पुनः तिलमिला कर तिलांजलि दे आना। वीरभद्र से ऐसा कहकर क्रोध से आंखें लाल किये भगवान शंकर मौन हो गये।

                     इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का बत्तीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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