गतांक से पैंतीसवां अध्याय कथा-प्रसंग
विष्णु द्वारा दक्ष को शिवोपदेश
दक्ष बोला- हे विष्णुजी, मैं बड़ा भयभीत हूं, मेरी रक्षा कीजिये, आप तो यज्ञ स्वरूप ही हैं, अतः हे प्रभो, जैसे भी हो मेरे इस यज्ञ की रक्षा कीजिये। जब इस प्रकार बहुत सी प्रार्थना करके दक्ष विष्णुजी के चरणों में गिर पड़ा, तब शिवजी के चरणों में सिर नवा कर उसे उठाते हुए विष्णु जी समझाने लगे –हे दक्ष, तुमने शिवजी को क्यों भुला दिया। सर्वेश्वर भगवान शंकरजी की अवज्ञा का ही यह फल है जोकि तुम्हारा कार्य विफल हो रहा है। पूज्यों का अपमान होने से पद-पद पर विपत्तियां प्राप्त होती हैं। दरिद्रता, मरण और भय ये तीनों प्राप्त होते हैं। अतएव तुम प्रयत्नपूर्वक शिवजी की पूजा करो। देखो, तुम्हारी ही दुर्नीति से आज हम सबका प्रभाव क्षीण हो गया है। ब्रह्माजी कहते हैं कि, विष्णु भगवान के यह वचन सुनकर दक्ष का मुख सूख गया। वह चुपचाप पृथ्वी पर बैठ गया।
इसी समय अपनी महा सेना लिये शिवजी द्वारा भेजे हुए वीरभद्र उस यज्ञ में आ पहुंचे जिसके पराक्रमी असंख्य शूरवीरों से यज्ञ-स्थल को कौन कहे दिशाओं सहित आकाश-मण्डल व्याप्त हो गया सातों द्वीपों सहित पृथ्वी कांप उठी और समस्त समुद्र थर्रा उठें उस सेना का उद्वेग देख दक्ष अपने मुख से रुधिर वमन करने लगा और अपनी स्त्री सहित विष्णुजी से बोला-‘‘हे विष्णुजी, मुझे आपही का भरोसा हैं मैंने आपही के बल पर यह श्रेष्ठ कर्म आरम्भ किया था, क्योंकि मैं जानता हूं कि आपही यज्ञों के प्रतिपालक और वेद धर्म के अधिष्ठान है, हे स्वामि, आप मेरे इस यज्ञ की रक्षा कीजिये’’
ब्रह्माजी कहते हैं- तब विष्णुजी दक्ष को फिर शिव-तत्व समझाते हुए बोले- हे दक्ष, मैं तुम्हारे यज्ञ की रक्षा अवश्य करूंगा, क्योंकि धर्म पालन करने के लिये मैं सत्य प्रतिज्ञ हूं। परन्तु अब तो तुम अपनी क्रूर-बुद्धि त्याग दो, केवल धर्म ही सर्वदा सफल नहीं होता। कर्म वहीं सफल होता है जिसमें फलदाता शंकर का सन्निवेश होता है। ईश्वर को त्याग केवल ज्ञान का आश्रय लेने वाला करोड़ों कल्प तक नरक में ही पड़ा रहता है। यह वीरभद्र शंकर के गणों का ऐसा सेनापति है जोकि शिवजी के शत्रु का सर्वथा ही नाश कर देता है। निःसन्देह यह तुम्हारे सहित हम लोगों का भी नाश कर देगा। शिवजी की आज्ञा का उल्लंघन कर मैं जो तुम्हारे यज्ञ में आया हूं इससे मुझे भी घोर दुःख उठाना पड़ेगा और आज इसे रोकने की मुझमें भी शक्ति नहीं है। सुदर्शन चक्र का भी इस पर कुछ प्रभाव न पड़ेगा। मैंने इसे छोड़ा नहीं कि यह शिवजी के पास चला जायेगा। बड़े शोक की बात है कि, बिना समय आये ही आज हमारा भी प्रलय होने जा रहा है और तुम्हारा तो नाश निश्चित ही है। यदि हम आदर सहित वीरभद्र का पूजन भी करें तो भी वह शंकर के क्रोध से क्रोधित होकर हमारी रक्षा नहीं करेगा। हम यदि यहां से भाग जायें तो भी यह वीरभद्र अपने आकर्षणों से हमें खींच लेगा। क्योंकि स्वर्ग, पाताल, पृथ्वी में कहीं भी वीरभद्र के शस्त्रों की गति रुक नहीं सकती तथा शिवजी के जितने भी गण हैं उन सबकी भी उतनी ही शक्ति है। विष्णुजी ऐसा कह ही रहे थे कि वीरभद्र यज्ञ मण्डप में आ गये, जिनके साथ महासागर रूप सेना मंडरा रही थी।
इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का पैंतीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः