गतांक से उन्तालीसवां अध्याय कथा-प्रसंग
विष्णु दधीचि संवाद
ब्रह्माजी बोले – अब एक दिन राजा क्षुव का कार्य सिद्ध करने के लिये भगवान विष्णु महर्षि दधीचि के आश्रम में पहुंचे और उनसे कहा कि, हे महर्षे, आपसे एक वर मांगने आया हूं। महर्षि दधीचि शिव के परम भक्त थे। उन्होंने जो नेत्र बन्द कर शिव का ध्यान किया तो उन्हें विष्णु का कपट ज्ञात हो गया। उन्होंने कहा- मैं समझ गया। परन्तु आप भगवान हैं। मैं आपसे क्या कहूं? फिर ब्राह्मण का वेष धर कर आये हैं। हे सुव्रत, आप इस वेष को त्याग दीजिये। मैं शिवजी का भक्त हूं। सब कुछ समझ गया हूं। राजा क्षुव के कल्याणर्थ आप मुझसे छल करने आये हैं, परन्तु मैं आपसे कहता हूं कि अपने शुद्ध रूप में होकर आप भगवान शंकर का स्मरण कीजिये। उनके स्मरण से आपको किसी प्रकार की चिन्ता न करनी होगी। देखिए, मुझे शंकरजी की कृपा से देवता, दैत्य किसी से भय नहीं लगता।
इस पर विष्णुजी ने महर्षि दधीचि को प्रणाम कर कहा-हे महामुनि, अवश्य, आपका कहना सत्य है और मैं जानता हूं कि जबसे आप शिवभक्त हुए तबसे आपको किसी का भय नहीं रहा, परन्तु आप मेरे कहने से एक बार राजा क्षुव के पास जाकर उससे यह कह दीजिये कि मैं तुमसे डरता हूं। विष्णुजी की ऐसी बात सुनकर शैव-श्रेष्ठ दधीचि ने हंसते हुए कहा कि, मैं शिवजी के प्रभाव से किसी से तो डरता नहीं हूं, फिर उससे क्या कहने जाऊं? इस पर विष्णुजी को क्रोध आ गया और उन्होंने अपना चक्र उठा महर्षि दधीचि को मारना चाहा। परन्तु ब्राह्मण पर वह नहीं चला। तब कुण्ठित दधीचि ने हंसते हुए भगवान विष्णु से कहा – हे भगवन्, यह शिवजी का दिया हुआ चक्र आप मुझ पर छोड़ना चाहते थे, परन्तु नहीं चला। चलता भी तो कैसे? शिवजी का अस्त्र मुझ जैसे ब्राह्मणा के लिये नहीं है। यदि आप क्रुद्ध ही हैं तो क्रम से ब्रह्मास्त्र आदि अस्त्रों तथा बाण आदि का प्रयोग कीजिये।
फिर तो दधीचि को निरा ब्राह्मण और पराक्रमहीन समझ विष्णुजी ने क्रोध कर उन पर अपने सभी अस्त्र चलाये। देवताओं ने भी विष्णु की सहायता की। इन्द्रादि देवों ने बड़े वेग से मुनि दधीचि पर अपने अस्त्रों को चलाया, परन्तु शिव-भक्त दधीचि ने मुट्ठी भर कुशा उठाकर जो उन पर छोड़ा तो शंकरजी के प्रभाव से वे कुशा कालाग्नि के समान त्रिशूल बन प्रलयाग्नि के समान अपनी ज्वालाओं से आयुध धारी देवताओं का संहार करने लगे। विष्णु, यम, इन्द्रादिक देवताओं के द्वारा छोड़े अस्त्र उन त्रिशूलों को प्रणाम कर कुंठित हो गये। देवता पराक्रम हीन हो वहां से भाग चले। केवल विष्णुजी ही वहां टिके रहे, परन्तु वे भी भयभीत ही रहे। उन्होंने और भी बहुत सी माया दिखलाई। मुनिश्रेष्ठ दधीचि ने कहा – हे विष्णो, माया त्याग दीजिये, मैं माया से नहीं डरता। इससे भी बढ़ कर मुझे और कितने ही दुर्जेय पदार्थ ज्ञात हैं। यदि आप में शक्ति नहीं है तो मैं आपको दिव्य नेत्र देता हूं, सबको देख लीजिये। ऋषि ने शिवजी की कृपा से अपने शरीर को विराट कर दिया। विष्णुजी ने उनके शरीर में सारा ब्रह्माण्ड देखा। फिर भी विष्णुजी युद्ध से परांमुख न हुए और परम शैव दधीचि भी शिवजी की कृपा से निर्भय हो उनसे युद्ध करते ही रहे। भीषण युद्ध हुआ। तब हे नारद, मैं विष्णु-भक्त ब्रह्मा राजा क्षुव को साथ ले उनका युद्ध देखने गया। मैंने निश्चेष्ट विष्णु भगवान तथा देवताओं को युद्ध करने से रोका और कहा-आप लोगों का प्रयास व्यर्थ है। इस ब्राह्मण को आप लोग नहीं जीत सकते।
यह सुन विष्णुजी शान्त हो दधीचि मुनि की स्तुति करने लगे। राजा क्षुव ने भी दीनता से मुनि के निकट जाकर उन्हें प्रणाम कर प्रार्थना की। इससे प्रसन्न हो मुनि दधीचि ने उन पर तो कृपा कर दी पर विष्णु आदि पर उनका कोप कम न हुआ। उन्होंने अपने हृदय में भगवान शंकर का स्मरण कर विष्णु सहित सब देवताओं को शाप दे दिया कि, समय आने पर तुम लोग रुद्र की कोपाग्नि से भस्म हो जाओगे। दधीचि को प्रणाम कर क्षुव अपने घर चले गये और विष्णु आदि देवता भी अपने लोक को चले गये। तब से उस स्थान का नाम थानेश्वर हुआ। वहां जो भी भगवान शंकर का दर्शन करता है उसे सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है।
इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का उन्तालीसवां अध्याय समाप्त।