गतांक से आगे... चौथा अध्याय कथा-प्रसंग विष्णु जी को नारद का शाप ऋषियों ने पूछा- हे महाविद्वान सूत जी, जब शिव के गण अपनी इच्छा से चले गये तब काम से विह्वल नारद मुनि ने क्या किया? सूतजी बोले-शिवजी की इच्छा से मोहित मुनि ने उन दोनों को यथोचित शाप देकर जब जल में जाकर अपना मुख देखा तो बन्दर की सी अपनी मुखाकृति को देखकर उन्हें विष्णु जी पर बड़ा क्रोध हुआ और सोचा कि यह तो उन्होंने मेरे साथ छल किया है। इस कारण वे क्रुद्ध हो विष्णु लोक को गये और बढ़ी हुई अग्नि के समान वाक्य कहने लगे। शिवजी की इच्छा से उनका ज्ञान नष्ट हो गया था और वे गर्व से पूर्ण वचन बोल रहे थे। नारद ने कहा- हे हरि, तुम बड़े कुटिल और कपटी हो। अपनी माया से संसार को मोहित कर मायावी और मलिन चित्त वाले हो। तुम किसी के उत्साह को सहन नहीं कर सकते। तुमने पहले मोहिनी रूप धारण कर कपट किया और असुरों को अमृत न पिलाकर उन्हें मदिरा पिलायी। यदि महादेव जी ने दया कर विष न पी लिया होता तो तुम सब बहाने बाजों की सारी माया ही नष्ट हो चुकी होती। हे विष्णु, तुमको कपटी चाल बड़ी प्यारी है। तुम्हारा स्वभाव अच्छा नहीं है। इसी से परमात्मा शिवजी ने ब्राह्मण को सबसे ऊपर कहा है। आजकल महादेव जी तुम्हारी चालबाजी पर पछताते हैं। इसलिये हे हरि, यह जाकर आज मैं उन्हीं शिवजी के बल पर शिक्षा देता हूं जिससे तुम फिर कहीं पर ऐसा कर्म न करो, क्योंकि तुम बड़े निःशंक हो। कारण कि कभी वेग वालों से तुम्हारा पाला नहीं पड़ा है। हे विष्णु, अब तुम अपने इस किये हुए कर्म का फल पाओगे। हे विष्णु, तुमने स्त्री के लिये मुझको व्याकुल और मोहित किया है और जिस स्वरूप से मेरे साथ व्यवहार किया है, हे हरि, तुम भी उसी रूप से मनुष्य होकर दुःख भोगोगे और जैसा मेरा मुख किया है इसी मुख वाले तुम्हारे सहायक होंगे। तुम भी स्त्री से अलग होने का दुःख पाओगे और संसार में अज्ञान से मोहित होकर तुम्हें भी नर लीला रचनी पड़ेगी। इस प्रकार नारद जी ने भगवान को शाप दे दिया। विष्णु जी ने शिवजी की माया की प्रशंसा की और उस शाप को ग्रहण कर लिया। फिर महादेव जी ने विश्वमोहक अपनी उस माया को खींच लिया, जिससे नारद जी मोहित हुए थे। उसके हटते ही नारद जी फिर पहले की भांति बुद्धिमान हो गये और पश्चाताप करते हुए बारम्बार अपनी निन्दा तथा शिवजी की माया की प्रशंसा करने लगे। फिर आकर विष्णु जी के चरणों पर गिर पड़े। भगवान ने उठाकर उन्हें अपने आसन पर बिठा लिया। नारदजी ने क्षमा की प्रार्थना की तो विष्णु जी ने समझा कर कहा कि हे नारद, खेद मत करो। तुम मेरे श्रेष्ठ भक्त हो इसमें संदेह नहीं। तुमको नरक नहीं होगा, क्योंकि तुमने मद से मोहित होकर शिवजी की बात नहीं मानी थी। तुम उनके और हमारे भी बड़े भक्त हो, इससे शिवजी तुम्हारा कल्याण करेंगे और यह तो तुम्हारे गर्व नाश के लिये ही उन्होंने ऐसी माया की थी। भगवान शंकर गर्व के हरत्ता हैं। वह परमात्मा, सच्चिदानन्द स्वरूप, निर्गुण और निर्विकार हैं। साथ ही वे सत्, रज, तम तीनों गुणों से परे निर्गुण और सगुण भी हैं। उन्होंने ही मुझको जगत का पालक, विधाता को स्रष्टा और रुद्र को सबका संहर्ता किया है। हे नारद, अब तुम्हारे लिये यही सुखद है कि तुम अपने सब संशय छोड़ कर शिवजी के श्रेष्ठ यश का गान करो और अन्न्यमति होकर सर्वदा शिवजी के शतनाम स्तोत्र का जप किया करो। इसको जपने से शीघ्र ही तुम्हारे सब पाप नष्ट हो जायेंगे। हे मुनि, शिवजी की पूजा से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। अतएव तुम भी पैर से लेकर मस्तक पर्यन्त अच्छी तरह भस्म लगाकर ‘ओम् नमः शिवाय’ मंत्र का जप किया करो। शिव के प्रिय रुद्राक्षां को यत्न से सब अंगांं में धारण करो। सर्वदा शिवजी की कथा कहो, सुनो और शिव भक्तों को अच्छी तरह बारम्बार पूजो। निरालस्य हो सर्वदा शिवजी की शरण में रहो। शिवजी के स्वच्छ चरणों को हृदय में धारण करो और शिव के प्रिय आनन्द वन में जाओ। वहां विश्वेश्वर को देखकर भक्ति से उनका पूजन करो तथा उनकी विशेष स्तुति और प्रणाम कर बन्दन रहित हो जाओ। हे मुनि, इसके पश्चात् तुम चाहे जहां गमन करना। मेरे शासन से ब्रह्मलोक में जाना और वहां पर अपने पिता ब्रह्मा की स्तुति और नमस्कार करना तथा उनसे भी शिवजी का महात्म्य पूछना। वहां वे तुम्हें शिवजी के सौ नामों का स्तोत्र सुनाएंगे। हे मुनि, आज से तुम शैव हो जाओ। शिवजी तुम्हारा कल्याण करेंगे। ऐसा कह कर शिवजी की स्तुति करते हुए उनका स्मरण और नमस्कार कर वे वहीं लुप्त हो गये।
इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्र संहिता का चौथा अध्याय समाप्त। क्रमशः