लिंगेश्वर परिचय

गतांक से आगे

कथा-प्रसंग

                ऋषियों की बात सुनकर सूतजी बोले-हे ऋषियो! श्रवण, कीर्तन और मनन में आसक्त प्राणी यदि शिवजी के लिंगबेर की संस्थापना कर नित्य उनकी पूजा किया करें तो भी वह संसार सागर से तर सकता है। इस पर मुनियों ने पूछा यह कैसे? बेर मात्र में ही सब देवताओं की पूजा कैसे सम्भव हो सकती है और सर्वदा लिंगेश्वर के द्वारा महाप्रभु शिवजी कैसे पूजे जा सकते हैं?

                श्रीसूतजी ने कहा – हे मुनीश्वरो! इसके लिए भी स्वयं महादेव ने कहा है किसी अन्य ने नहीं। मैंने श्रीगुरु जी के मुख से यही सुना है कि एक शिवजी ब्रह्म रूप और निष्कल अर्थात् कलारहित और कला सहित भी हैं। इस निष्कल में निराकार लिंग की प्रधानता है, परन्तु वे सभी कलाओं से संयुक्त हैं इसलिये शिव का साकार रूप -बेर स्वरूप भी हो सकता है और इस साकार और निराकार से ही शिवजी ब्रह्म संज्ञक भी हो जाते हैं। इसी से लोग उनके दोनों स्वरूपों की पूजा करते हैं, अन्य देवों में यह तत्त्व नहीं है। यही कारण है कि वे निष्कल लिंग रूप से पूजित नहीं होते। ब्रह्म पदवी तो केवल शंकर जी को ही प्राप्त है। इस वेदान्तसार ओम् प्रणव के लिए भी सनत्कुमार जी ने मन्दराचल पर्वत पर श्री नन्दिकेश्वर जी से प्रश्न किया था जिस पर नन्दिकेश्वर ने यह स्पष्ट किया था कि एकाकी शिवजी ही इस प्रकार पूजनीय हैं। कलापूर्ण भगवान् शिव का बेर पूजन लोक-सम्मत है और वेद ने जिसकी आज्ञा दी है।

                इस पर सनत्कुमार जी ने लिंग बेर की उत्पत्ति पूछी तो नन्दिकेश्वर ने बतलाया- पूर्वकाल में जब ब्रह्मा और विष्णु में युद्ध हुआ तो उनके बीच में निष्कल शिवजी ने स्तम्भ रूप में प्रकट होकर विश्व संरक्षण किया था तभी से महादेव जी का निष्कल लिंग और सकल बेर जगत् में प्रचलित हो गये। बेर मात्र को देवताओं ने भी ग्रहण किया, इससे शिवजी के अतिरिक्त बेर लिंग से देवताओं की भी पूजा होने लगी और वही उसका फलदाता हुआ, परन्तु शिव जी के लिए लिंग और बेर दोनों ही पूजनीय हुए और जिनसे कल्याणमय भोग और मोक्ष दोनों ही प्राप्त होने लगे।

                इति श्री शिवमहापुराण विद्येश्वर-संहिता पांचवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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