राम से बढ़ा राम का नाम। प्रस्तुत है गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरित मानस में वर्णित राम नाम की महिमा

राम से बढ़ा राम का नाम। प्रस्तुत है गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरित मानस में वर्णित राम नाम की महिमा आज भारत की धरा की चारों दिषाएं राम नाम से गुंजायमान हो रही हैं ऐसा लगता है जैसे युग परिवर्तन का समय आ गया है। हम एक बार फिर से कलयुग से सतयुग की ओर पदार्पण कर रहे हैं। अनेकों वर्शों से जिस रामजन्म भूमि पर मुगलों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया हुआ था और श्रीराम जन्म भूमि में राम लला को कैद कर ताले में बंद कर रखा था उस कैद खाने से श्रीराम को मुक्त कराकर भारतीय सत्यसनातन धर्म का जय घोश करने वाली सरकार के रुमाइंदों ने आज उसी राम जन्म भूमि को एक बार पुनः जवन्त कर दिया है। भारत सरकार द्वारा उसी राम जन्म भूमि से कुछ दूरी पर (ज्ञात हो नवनिर्मित श्रीराम मंदिर भवन मुख्य राम जन्म भूमि से कुछ दूरी पर बनाया गया है) भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण कर 22 जनवरी को एक नये राम की प्रतिमा में प्राण प्रतिश्ठा समारोह आयोजित किया जा रहा है। जहां एक ओर भारत सरकार राम के नाम पर दिल खोलकर पैसा लुटा रही है वहीं भारत की जनता भी राम नाम जपते जपते अपने आपको राममय बनाने के लिए अपना सर्वस्व लुटाने पर तुली हुई है यही तो आस्था और विष्वास की बात है दोस्तो।

आज मैं आपको राम नाम की महिमा का जो बखान गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी स्वयं रचित रामचरित मानस में किया है उसके कुछ अंष आपको बता रहा हूं। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो।।1।।

अर्थात् मैं श्री रघुनाथजी के नाम ’राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् ’र’ ’आ’ और ’म’ रूप से बीज है। वह ’राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥1॥

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू।।

महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।2।।

तुलसीदास जी कहते हैं – जो महामंत्र है, जिसे महेष्वर श्रीशिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को प्रभु श्रीगणेशजी जानते हैं, जो इस ’राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं।।2।।

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू।।

सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी।।3।।

तुलसीदास जी कहते हैं- आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते थे तभी तो वे  उल्टा नाम (’मरा’, ’मरा’) जपकर पवित्र हो गए। प्रभु शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (प्रभुशिव) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं।।3।।

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को।।

नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।4

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