गतांक से आगे, चौवालीसवां अध्याय] कथा-प्रसंग
मैना प्रबोधन (2)
पार्वती के इन वचनों को सुन कर हिमालय की स्त्री मैना के क्रोध का अन्त न रहा। वे बहुत विलपती हुई पार्वती को पकड़ कर, क्रोध से दांतों को पीसती हुई मुट्ठी तथा पहुंचों से उसे प्रताड़ित करने लगीं, ऋषियों ने मैना के हाथ से छीन कर पार्वती को अलग किया। मैना ऋषियों को दुर्वचन कह फटकारने लगीं और कहने लगीं कि मैं इस शिवा को लेकर क्या करूंगी। अब इसे या तो विष दे दूंगी या कुएं में डाल दूंगी। इस दुष्टा ने कैसा भयंकर वर वरण किया है। हा, इसने मेरा और गिरिराज का उपहास कराया है। भला जिसके माता-पिता, गोत्रज, भाई-बन्धु, स्वरूप, चातुर्य और घर कुछ भी नहीं तथा जिसके पास कोई वस्त्र और अलंकार तक नहीं है, न उसका कोई सहायक है, न सुन्दर वाहन, न अवस्था और न कुछ धन ही है और न पवित्रता, न विद्या ही है तथा जिसका शरीर भी सर्वथा ही दूशित है उसे मैं अपनी सुमंगली पुत्री कैसे दूं? हे मुनीश्वर, ऐसा कह कर मैना दुःख और शोक से व्याकुल होकर उच्च स्वर से विलाप करने लगीं।
तब मैं (ब्रह्मा) शीघ्र ही मैना के पास गया और शोकाहारी शिव तत्त्व का वर्णन करने लगा। साथ ही यह भी कहा कि तुम इस बुरे हठ को छोड़ पार्वती को शिव के लिए दे दो। तब बार-बार विलाप करती हुई मैना ने मुझसे कहा कि, हे ब्रह्मन्, आप इसके श्रेष्ठ रूप को विफल क्यों करते हैं। यदि ऐसा ही है तो अपने ही हाथ से इसे मार क्यों नहीं देते। आप इस शिव के लिए एक वाक्य भी न कहें। मैं पार्वती को शिव के लिए नहीं दूंगी। क्योंकि मेरी पार्वती मुझे प्राणों से भी प्यारी है। हे मुनीश्वर, इसके पश्चात् सनकादिकों ने भी मैना को समझाया और विष्णु ने शिवतत्त्व निरूपण कर शिवजी की महानता प्रकट करते हुए कहा कि सब कुछ शिवमय है। इसमें कुछ अन्य विचार क्या करना? अब वही परम पुरुष तुम्हारे द्वार पर आये हैं, इसलिए तुम दुःख त्याग कर शिवजी का भजन करो। तुम्हें बड़ा आनन्द प्राप्त होगा और क्लेश नाश हो जायेंगे। हे मुनीश्वर, जब विष्णुजी ने इस प्रकार बहुत कुछ कह कर मैना को समझाया तब मैना का चित्त कुछ कोमल हुआ और उसने शिव को कन्या न देने का हठ छोड़ दिया, परन्तु फिर गिरिप्रिया कुछ रोष से विष्णु जी से इस प्रकार बोलीं कि, यदि शंकरजी का शरीर मनोहर हो जाय तो मैं अपनी कन्या उन्हें दे सकती हूं अन्यथा कोटि यत्न करो तो भी कन्या शंकर को नहीं दूंगी, यह मैं सत्य कहती हूं और इस पर मैं सर्वथा ही दृढ़ हूं। ऐसा कह कर दृढ़व्रता मैना चुप हो गयीं।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का चौवालीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः