गतांक से आगे, चौवालीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
मैना प्रबोधन (1)
ब्रह्माजी बोले- जब मैना कुछ सचेष्ट हुई तब अत्यन्त क्षुभित होकर विलाप और तिरस्कार की बातें करने लगीं। पहले तो उन्होंने व्याकुल होकर अपने पुत्रों की निन्दा की, फिर अपनी पुत्री को दुर्वचन कहना आरम्भ किया।
मैना ने नारद से कहा -हे मुने, पहले तुमने कहा कि पार्वती शिव को वरेगी, इसी से पर्वतराज ने इससे शिव की पूजा करायी। वास्तव में यह उसी का अनर्थकारी फल दिखाई पड़ा। रे अधम मुनि, रे दुर्बुद्धे, तूने सर्वथा ही मुझे ठग लिया। हा, क्या करूं और कहां जाऊं ? कौन मेरा दुःख छुड़ावेगा? हां, मेरा कुल आदि सब कुछ नष्ट हो गया। मेरा जीवन नष्ट हो गया। पता नहीं कि दिव्य महर्षि कहां चले गये। मैं उनकी दाढ़ी उखाड़ लूंगी। उस वसिष्ठ की तपस्विनी पत्नी सचमुच बड़ी धूर्ता निकली। मैंने ऐसा किसका अपराध किया था जो आज मेरा सर्वस्व लुट गया।
ऐसा कह कर वह पुत्री की ओर देख उसे कटु वचन कहने लगीं। रे दुष्ट पुत्री, तूने मुझे दुःख देने वाला यह क्या काम किया, जो तुम दुष्टा ने सुवर्ण देकर कांच खरीद लिया। हा, तूने चन्दन छोड़ कीचड़ को लपेट लिया। हंस को उड़ा हाथ में कौए को पकड़ लिया। तूने गंगाजल छोड़ कर कुएं का जल पिया। सूर्य को छोड़ जुगनू पकड़ा। तण्डुलों को छोड़ तुष का भक्षण किया। सिंह को छोड़ श्रृंगाल को पाला तथा ब्रह्म विद्या को त्याग कुत्सित गाथाएं सुनीं। हे पुत्री, तूने घर की मांगलिक यज्ञ-विभूति को छोड़कर अमांगलिक चिता की भस्म को ग्रहण किया। विष्णु जैसे परमेश्वर और सम्पूर्ण देवताओं को छोड़ कर तूने अपनी बुद्धि से शिव के लिए ऐसा तप किया। तेरी ऐसी बुद्धि और रूप तथा चरित्र को धिक्कार है। तेरी सखियों को धिक्कार है और तुझे जन्म देने वाले हम लोगां को भी धिक्कार है, और हे नारद, तुम्हारी बुद्धि तथा सुबुद्धि देने वाले सप्तर्षियों को भी धिक्कार है। तूने मेरा घर नष्ट कर दिया। अब तो मैं अवश्य ही मर जाऊंगी। अब यह पर्वतराज मेरे निकट न आवें और सप्तर्षि लोग मुझे मुंह न दिखावें। हा, इन्हें क्या मिल गया जो इन सबने मिलकर मेरा कुल नष्ट कर दिया। मैं बन्ध्या क्यों न हो गई। मेरा गर्भ ही क्यों न गिर गया अथवा मैं मर ही क्यों न गयी अथवा यह पार्वती ही क्यों न मर गयी अथवा आज आकाश में किसी राक्षस ने ही इसे क्यों नहीं खा लिया? हे मुने, अभी तेरा सिर काट लूंगी। शरीर रख कर ही क्या होगा। हा, मैं तुझे छोड़ कर कहां जाऊं। हा, मेरा तो जीवन ही नष्ट हो गया।
ब्रह्माजी कहते हैं- ऐसा कह कर मैना मूर्छित हो फिर पृथ्वी पर गिर पड़ी तथा शोक और क्रोध से सन्तप्त हो अपने पति के पास गयीं। फिर तो बड़ा हाहाकार मच गया। सभी देवता क्रम से उनके निकट जाने लगे। सबसे पहले मैं पहुंचा। हे नारद, तब मुझे देखकर तुम उससे कहने लगे- क्या तूने पहले शिवजी के स्वाभाविक सौन्दर्य को नहीं जाना था, जो उन्होंने लीला करने के लिए धारण किया। हे पतिव्रते, क्रोध त्याग कर स्वस्थ हो जाओ और हठ छोड़ कर कार्य करो तथा शिवजी के लिये पार्वती को दे दो।
तब तुम्हारी यह बात सुनकर मैना ने तुमसे कहा- यहां से हट जाओ। तुम बड़े दुष्ट तथा अधम शिरोमणि हो। तब उसके ऐसा कहने पर इन्द्रादिक लोकपालों ने कहा कि, हे बहिन मैनके, तुम प्रसन्न होकर हमारे वचन सुने। तुम्हारी पुत्री का कठिन तप देखकर भगवान शंकर ने उसे वर दिया है। वह अन्यथा नहीं होगा। इस पर मैना ने बार-बार रोते हुए कहा कि, मैं उस उग्र रूप धारी शिव को अपनी कन्या नहीं दूंगी। तुम सब देवता प्रपन्च न फैलाओ। उसके ऐसा कहते ही वसिष्ठादि सप्तर्षि वहां आकर बोले-हे पितृकन्ये, पर्वतराज प्रिये, हम सब तो तुम्हारे हितैषी हैं। फिर आपके विरुद्ध कार्य कैसे कर सकते हैं? क्या यह कोई कम लाभ है जो शिव का दर्शन हुआ और वे तुम्हारे घर दानक पात्र बन कर आये। मैना तो ज्ञान-शून्य हो रही थीं, उन्होंने ऋषियों के वाक्यों को व्यर्थ कर दिया और कहा- मैं पार्वती को शस्त्र से मार दूंगी, किन्तु शिव के लिए नहीं दूंगी। तुम सब दूर चले जाओ और मेरे पास मत आओ।
इस वृत्तान्त से वहां हाहाकार मच गया। हिमाचल उसे समझाने आये। उन्होंने कहा, प्रिये, क्या तू नहीं जानती कि तेरे घर कौन-कौन आये हैं? तुम उनकी निन्दा न करो। शिवजी के एक ही रूप नहीं हैं जिसे देखकर तुम व्याकुल हो रही हो। उनके और भी दिव्य रूप हैं। वे निग्रह-अनुग्रह करने वाले तथा पूज्यों के भी पूज्य हैं। दुःख त्याग कर उठो और शीघ्र सब कार्य करो। तुमको खिझाने के लिये ही लीलाधारी शम्भु ने यह विकट रूप धारण किया है। किन्तु उनका परम माहात्म्य देखकर ही मैंने और तुमने उन्हें अपनी कन्या देना स्वीकार किया था। अतः उठो और उनको प्रणाम करो।
इस पर मैना ने कहा-हे नाथ, तुम मेरे वचन सुनो और वैसा ही करो। क्योंकि तुम योग्य हो। पार्वती का गला बांध कर निःशंक हो नीचे गिरा दो। मैं शंकर के लिए कन्या नहीं दूंगी। अथवा निर्दय होकर इस कन्या को ले जाकर समुद्र में डुबो दो और सुखी हो जाओ। परन्तु मैं इस विकट रूपधारी शंकर को अपनी पुत्री नहीं दूंगी। यदि तुम दोगे तो निश्चय ही मैं अपने प्राणों को त्याग दूंगी। जब मैना ने इस प्रकार के वचनों में हठ पकड़ लिया तब पार्वती स्वयं ही आकर उनसे यह मरोहर वचन बोलीं कि- हे माता, तुम्हारी शुद्ध बुद्धि विपरीत क्यों हो गयी? तुम तो एक परम धर्मज्ञा थी। फिर धर्म को क्यों त्यागती हो? यह रुद्र तो परम प्रभु साक्षात् ईश्वर हैं। भगवान शंकर तो सबके प्रभु और स्वयं एक ऐसे राजा है, जिनकी ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी उपासना करते हैं। इससे बढ़ कर और कौन सा सुख है। अतएव उठो और अपने जीवन को सफल करो। हे माता, तुम परमेश्वर शंकर के लिए मुझको दो। मेरी यह प्रार्थना स्वीकार करो। यदि तुम मुझे शंकर के लिए नहीं दोगी तो मैं अन्य वर को वरण नहीं करूंगी। भला सिंह के भाग को श्रृंगाल कैसे पा सकता है? मैं तो मन, कर्म और वाणी से शंकरजी को वर चुकी हूं। आगे तुम्हारी जैसी इच्छा हो वह करो। क्रमशः