गतांक से आगे, इकतीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
ब्राह्मण रूपधारी शंकरजी का पार्वती के लिए हिमालय के घर जाना
ब्रह्मा जी बोले – हे नारद, अब उनकी भक्ति पर इन्द्रादिक देवताओं ने विचार किया। फिर स्वार्थ साधक इन्द्र सब देवताओं को साथ ले गुरु ब्रहस्पति के आश्रम पर पहुंचे। सारा समाचार कहा और यह भी कहा कि, हे गुरुदेव, आप हमारी कार्य-सिद्धि के लिए हिमालय के घर जाइये और प्रयत्नपूर्वक शिवजी की निन्दा कीजिये। जिससे शिवजी की दृढ़ भक्ति कर पर्वतराज दिव्य भोगों को भोग मोक्ष के अधिकारी न होने पावें। उधर पार्वती शिव को छोड़ दूसरा वर नहीं चाहतीं। यदि हिमालय निष्काम भाव से अपनी पुत्री को शिव-समर्पण करेगा तो वह शीघ्र ही मोक्ष का अधिकारी हो जायेगा। परन्तु हम यह चाहते हैं कि वह बहुत काल तक पृथ्वी पर ही रहे। हे गुरुदेव, जैसे भी हो, आप इस कार्य को कीजिये।
देवताओं की वाणी सुनकर वृहस्पति जी ने कानों में उंगली दे ली और उनकी बात न स्वीकार करते हुए ‘शिव-शिव’ करने लगे। उन्होंने देवताओं को बहुत धिक्कारा और कहा कि तुम लोग शिवजी के निन्दक हो। मैं शिव निन्दा करके नरक नहीं जाऊंगा। यदि ऐसा ही है तो तुममें से कोई एक देवता हिमाचल के पास जावे और तुम्हारा कार्य सम्पादन करे। अनिच्छा से वह अपनी पुत्री को देकर पृथ्वी पर रह सकते हैं। ये सप्तर्षि ही पर्वत को समझाने जावें और यह कहें कि पार्वती शिवजी के बिना दूसरा वर ग्रहण न करेगी। वृहस्पतिजी से ऐसा सुन, सब देवता मुझ ब्रह्मा के पास आये और सारा वृत्तान्त कहा। उसे सुन मुझे भी दुःख हुआ। मैंने भी कहा कि मैं शिवजी की निन्दा नहीं कर सकता। आप लोग स्वयं ही शिवजी के पास जाइये और उन्हीं को हिमालय के पास भेजिये। शिवजी ही वहां जाकर स्वयं अपनी निंदा करें। दूसरा करेगा तो उसका विनाश होगा। यदि कोई स्वयं अपनी निन्दा करे तो उससे उसे यश होता है। यह सुन देवता कैलास पर गये और शिवजी की बड़ी स्तुति की तथा आदरपूर्वक सब वृत्तान्त कह सुनाया। देवताओं के उस कथन को सुन कर शिवजी ने स्वीकार किया और हंस कर उन्हें उनकी रक्षा का आश्वासन दिया। देवता अपना काम सिद्ध जान प्रसन्न हो शिवजी की प्रशंसा करते हुए अपने स्थान पर आये।
फिर तो माया के ईश प्रभु शंकर जी शीघ्र ही हिमाचल के पास जा पहुंचे। हिमालय अपने बन्धुजनों और पार्वती सहित सभा में बैठे थे। उसी समय दण्ड, छत्र सहित दिव्य शस्त्र धारण किये तथा उज्ज्वल तिलक लगाये भगवान् शंकर वहां जा पहुंचे। हाथ में स्फटिक मणि की माला लिये गले में शालिग्राम लटकाये साधु का सा वेष बनाये और नारायण का नाम जपते हुए वहां जा पहुंचे। उन्हें इस रूप में देख हिमालय ने उठकर प्रणाम किया और पार्वती ने भी भक्तिपूर्वक प्रणाम किया तथा पहचान कर उनके मन में बड़ा हर्ष हुआ। ब्राह्मण रूपधारी शंकरजी ने सबको आशीर्वाद दिया और शिवा को तो अधिक प्रेम से उनको मनोवांछित आशीर्वाद कर सुनाया। फिर हिमाचल ने बड़े प्रेम से उनको मनोवांछित आशीर्वाद कह सुनाया। फिर हिमाचल ने बड़े प्रेम से द्विजेन्द्र की कुशल पूछी और कहा कि आप कौन हैं? तब महादेवजी ने हिमालय से कहा- मैं एक ज्योतिषी हूं जो गुरु कृपा से मन के समान सर्वत्र विचरण करता रहता हूं। मैंने सुना है कि तुम अपनी सुलक्षणा कन्या को शिव के लिए देना चाहते हो, परन्तु शंकर तो सर्वथा निराश्रय, निःसंग, कुरूप, अगुण, शमशानवासी, व्यालग्राही और जोगी हैं। तुम ऐसे विकट और जटाधारी को जो सर्पों का हार पहनता है, वेद मार्ग से भ्रष्ट है, उस शिव को अपनी पुत्री क्यों देना चाहते हो? हे अचल, तुम्हारी यह बुद्धि तो सर्वदा अमंगलादायक है। तुम नारायण के कुल में उत्पन्न होने वाले क्षण भर विचार तो करो कि तुम्हारी यह पार्वती दान रूप कर्म पात्र के समान नहीं है। कोई भी विचारशील इस बात को सुन कर तुम्हारी निन्दा ही करेगा। इस प्रकार और भी बहुत सी शिव-निन्दक बातें कह तथा हिमाचल द्वारा दिये हुए पदार्थों को खाकर अनेक लीला-विशारद शंकर जी शांत भाव से अपने आश्रम को चले गये।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का इकतीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः