गतांक से आगे दसवां अध्याय कथा-प्रसंग
ब्रह्मा-विष्णु संवाद
नारद जी ने कहा- हे भगवन्, रति और गणों के साथ काम के चले जाने पर क्या हुआ? कृपया अब उस चरित्र को सुनाइये। ब्रह्माजी बोले-हे नारद, काम के चले जाने पर श्री महादेवजी में मैं अपनी पूर्ण भक्ति न पाकर बड़ा दुःखी हुआ तथा उन्हें जो मोहित करा देने का मेरा अहंकार था वह भी चूर्ण हो गया, परन्तु मैं यह विचार करता ही रहा कि ऐसी क्या युक्ति करूं कि जिससे महात्मा शिवजी स्त्री ग्रहण कर ही लें। मैंने शिव आत्मा विष्णु का स्मरण किया। पीताम्बरधारी श्रीहरि शीघ्र ही मेरे पास प्रकट हो गये। मैंने उन पीताम्बरधारी चतुर्भुज भगवान की जल भरे नेत्रों और गद्गद् वाणी से स्तुति की। उससे प्रसन्न्न हो भगवान मुझसे बोले हे विधे, हे ब्रह्मन्, हे महायज्ञ, हे लोकों के कर्त्ता, तुम धन्य हो, कहां, किसलिये मेरा स्मरण किया है। तुमको ऐसा कौन सा बड़ा दुःख हुआ है जो तुमने मेरा स्मरण किया है। मुझसे कहो। मैं तुम्हारा वह सब दुःख दूर करूंगा। तब एक दीर्घ निःश्वास लेकर हाथ जोड़ प्रणाम कर मैंने देवाधिदेव विष्णु जी से कहा हे रामनाथ, हे मनोकामना देने वाले, मैंने रुद्र के सम्मोहनाथ सपरिवार मार गण और वसन्त के साथ काम को भेजा था, परन्तु सब निष्फल हुए। तब शिव तत्व विशारद अखिल ज्ञानी श्रीहरिजी मेरे वचनों को सुनका विस्मित हो मुझसे बोले हे पितामह, ऐसा तुम क्यों करना चाहते हो? पहले अपना सब विचार सत्य-सत्य कहो। ब्रह्मा जी कहते हैं तब मैंने कहा कि, सृष्टि के आरम्भ में जब मेरे दक्षादिक दस पुत्र और वाणी द्वारा एक सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई और छाती से धर्म, मन से काम और देह से बहुत से प्राणी उत्पन्न हुए तब उस कन्या को देखकर मुझे मोह उत्पन्न हो गया और आपकी माया से मोहित होकर मैंने उस कन्या को कुदृष्टि से देखा। तब उसी समय महादेव जी ने आकर मुझे और मेरे पुत्रों को बहुत धिक्कारा। मेरे पुत्रों के समक्ष मेरी निन्दा की। इसका मुझे बड़ा दुःख है। हे केशव। अब वह भी स्त्री ग्रहण करें तब मेरा दुःख दूर होगा और तब मैं सुखी होऊंगा बस इसीलिये आपकी शरण में पड़ा हूं। हे नारद। मेरी ऐसी बात सुनकर मधुसूदन भगवान हंसे और मुझे प्रसन्न करते हुए बोले हे विधे, आप सब लोकों के कार्ता और वेदवक्ता होकर ऐसी महामूढ़ मति वाले क्यों हो गये? हे मन्दात्मन, जड़ता छोड़कर ऐसी बुद्धि मत करो। तुम रुद्ररूप शिवजी से ईर्ष्या त्याग दो। यदि तुम शिवजी का स्मरण कर तप करो। अपने उद्देश्य से हृदय में पार्वती का ध्यान करो। यदि वह भगवती प्रसन्न हो जायेंगी तो तुम्हारे सब काम पूर्ण हो जायेंगे। वह सर्व-गुण सम्पन्न पार्वती अवतार ले लोक में किसी की कन्या हो जायेंगी और वह शीघ्र ही शिवजी की पत्नी होंगी। इसके लिये तुम दक्ष को आज्ञा दे दो कि वह तप करे जिसकी भक्ति से पार्वती उसके यहां उत्पन्न हो जायेंगी। हे तात, शिवाशिव सर्वदा अपने भक्त की इच्छानुकूल हैं। क्या तुम नहीं जानते कि उनके ही दिये हुए अधिकार से आज हम तुम दोनों ऐसे हुए हैं। परन्तु धन्य हैं शिवजी की माया जिसने तुमसे सब कुछ भुला सा दिया। मैं, तुम और शिव सभी तो उन्हीं के स्वरूप हैं। इसी प्रकार पार्वती जी के भी तीन स्वरूप हैं। विष्णु की लक्ष्मी, ब्रह्मा की सरस्वती और शिव की सती। यह सब शिवजी हमको और तुमको पहले ही बतला गये हैं। उन्हीं से हम दोनों सुखी हैं। इधर जब हमने और तुमने अपना-अपना कार्य आरम्भ किया तो उधर कैलास पर जाकर शंकर जी रुद्र हो गये। वहां उन्होंने रुद्र का अवतार लिया। अब उनको बुलाने में कुछ यत्न करना होगा। युक्ति से भक्ति पूर्वक तप करो। तब कहीं प्रजेश दक्ष के यहां सती नाम से शिवा पार्वती का अवतार होगा। करुणेश विष्णु यह कह कर वहीं अन्तर्धान हो गये। मेरा अहंकार जाता रहा। इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का दसवां भाग समाप्त। क्रमशः