ब्रह्मा-नारद संवाद

            नारदजी ने पूछा- हे ब्रह्मन्, जब प्रजेश दक्ष घर गये तब क्या हुआ? वह सब प्रीतिपूर्वक बतलाइये।

            ब्रह्माजी बोले- दक्ष ने घर जाकर बहुत सी मानसी सृष्टि की, परन्तु जब उनमें विकास न हुआ तब उन्होंने मुझसे उपाय पूछा तो मैंने बतला दिया। दक्ष ने पंचजन के अंग से उत्पन्न कन्या को अपनी पुत्री बनाया। मेरे पुत्र ने मैथुन धर्म स्वीकार किया, फिर वीरनी की कन्या से विवाह किया, जिस वीरनी से उन्होंने हर्यस्व नाम वाले दस हजार पुत्र उत्पन्न किये। उन पुत्रों से उन्होंने (दक्ष ने) सृष्टि बढ़ाने को कहा। वे पुत्र सृष्टि की चिन्ता में पूर्व दिशा की ओर समुद्र-संगम पर तप करने चले गये, परन्तु हे नारद, तुमने प्रकट होकर उन्हें बहका दिया। वे प्रवृत्ति त्याग निवृत्ति के उपासक बन गये। तब वे निर्गुण सृष्टि करना क्या जानते? फिर उनका नाश भी हो गया। तब उनका नाश सुनकर दक्ष को बड़ी चिन्ता हुई और उन्होंने उत्तम संतान का नाश होना शोक का स्थान माना। मैंने जाकर अपने पुत्र को समझा कर उनका शोक निवृत्त किया।

           जब वे शान्त हुए तब उन्होंने पंचजन्या से सबलाश्व नामक फिर हजारों पुत्र उत्पन्न किये और वे भी अपने पूर्व भाइयों के ही अनुवर्ती हुए। दक्ष फिर पुत्रों के घर न लौटने से दुःखी हुए। इस बार उन्हें ऐसा आघात पहुंचा कि उन्होंने तुम्हें दुष्ट कहा और उसी समय बहुत से देवता भी वहां आ गये थे। उनके सामने ही उन्होंने (दक्ष ने) तुम्हारी बहुत निन्दा की और यह शाप भी दिया कि तूने पृथ्वी पर विष्णु गुणगान में भ्रमण करते हुए मेरे पुत्रों को बहका कर मेरा बड़ा अनिष्ट किया है, इसलिये तेरे चरण पृथ्वी पर कहीं स्थिर नहीं रहेंगे। हे मुने, तुम निर्मल थे। उस शाप को ग्रहण कर लिया क्यों न हो तुम ब्रह्मज्ञानी और साधु थे।

इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का तेरहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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