ब्रह्मा की विरूपता का वर्णन

गतांक से आगे बीसवां अध्याय] कथा-प्रसंग

            नारद जी ने पूछा- हे ब्रह्मन्, हे विधे, हे महाभाग, फिर इसके आगे क्या हुआ? समस्त पापों का नाशक शिव-सती का समस्त दिव्य चरित्र मुझे सुनाने की कृपा कीजिये।

            ब्रह्माजी बोले- हे नारद, जब शिवजी ने मेरा वध नहीं किया तो सब देवता प्रसन्न हो जय-जय करते हुए शंकरजी की स्तुति करने लगे। मैंने भी अनेकों स्तोत्रों से उनकी स्तुति की। तब भगवान शंकर ने प्रसन्न हो सबके सामने ही मुझसे कहा- हे तात ब्रह्मा। अब निर्भय हो जाओ और मेरी आज्ञा से अपना मस्तक स्पर्श करो। मैंने अपना मस्तक छूकर उन्हें प्रणाम किया। शिवजी मेरे मस्तक पर जा बैठे। इन्द्रादि देवताओं के देखते ही मैं लज्जित हो गया। फिर तो शिवजी की स्तुति कर मैंने उनसे क्षमा-याचना की और इस पाप की शुद्धि का कोई उपाय पूछा।

            शिवजी ने कहा- बस, अब जो रूप मैंने तुम्हारा कर दिया है, तुम इसी रूप से मेरी आराधना कर तप करो। रुद्र सिर से पृथ्वी में तुम्हारी ख्याति होगी और तुमसे तेजस्वी ब्राह्माणों के कार्य सिद्ध होंगे। तुमने अपना वीर्यपात कर मनुष्यों जैसा कार्य किया है, अतः तुम मनुष्य बन कर पृथ्वी पर विचरण करो। जो लोग तुम्हें इस रूप में देखेंगे, वे यही कहेंगे कि शिवजी ब्रह्मा के सिर पर बैठे हैं और इससे लोग पर स्त्री गमन भी नहीं करेंगे। इसीसे तुम्हारे पापों की शुद्धि होगी और जो पृथ्वी पर तुम्हारे वीर्य की चार बूंदें गिरी हैं, उनसे आकाश में प्रलय करने वाले चार बादल होंगे। 1. सम्वर्त्त, 2. आवर्त्तक, 3. पुष्कर, 4. द्रोण। ऋषियों के देखते ही वे मेघ बन गये। तब भगवान शंकर और देवी सती दोनों शान्त हो गये। फिर शंकर जी की आज्ञा से मैंने उनका विवाह कार्य सम्पन्न कराया और देवताओं ने सती और शंकरजी पर फूलों की वर्षा की और बड़ा उत्सव हुआ।

            तब उन ईश्वर ने आदर पूर्वक मुझसे कहा- हे ब्रह्मन्, तुमने विवाह कर्म उत्तम रूप से कराया है। इससे मैं प्रसन्न हो तुम्हें आचार्य की पदवी देता हूं और बोलो दक्षिणा क्या दूं? मैंने विनम्र होकर कहा- हे देवेश, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मनुष्यों की पाप शुद्धि के लिये आप इस वेदी में इसी रूप से स्थित रहिये। मैं इसी के समीप अपना आश्रम बना कर तप करूंगा। शिवजी ने कहा- तथास्तु, ऐसा ही हो। मैं लोक हितार्थ इस वेदी में सती देवी सहित वास करूंगा। पश्चात् भगवान शंकरजी ने हाथ जोड़ दक्ष से सती सहित जाने की आज्ञा मांगी। दक्ष ने बड़े उत्साह से अपनी पुत्री सती सहित श्रीशंकर जी को विदा किया। शिवजी कैलास-धाम अपने आश्रम पर पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने सब ऋषियों सहित देवताओं को विदा किया। सब शिवजी को मनस्कार कर अपने स्थान पर चले गये। शिवजी प्रसन्न हो सती सहित हिमालय पर विहार करने लगे। हे मुने, स्वायंभुव मनु के समय होने वाले शिव-विवाह का यह वर्णन मैंने तुम्हें सुनाया। जो पुरुष विवाह के समय अथवा यज्ञ के पूर्व ही अव्यग्र होकर शिवजी का पूजन कर इस आख्यान को सुनेंगे उनके विवाहादिक सारे कर्म निर्विघ्न पूर्ण होंगे। कन्याएं इसे सुनकर सुख-सौभाग्य से पूर्ण, शील-आचार गुणों से युक्त साध्वी तथा पुत्रवती होती हैं।

इति श्रीशिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का बीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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