ब्रह्मा का मोह

             ब्रह्मा जी बोले – तब उस समय ईश्वर ने ब्राह्मणों द्वारा स्थापित की हुई अग्नि में पार्वती को गोद में बिठा कर हवन किया। वेद-मन्त्रों द्वारा अग्नि में आहुतियां दीं तथा मैनाक ने जलांजलि प्रदान की अर्थात् लावा परछन किया। पश्चात् शिव तथा पार्वती जी ने विधिपूर्वक अग्नि की परिक्रमा की। उस समय जो मुझ ब्रह्मा ने पार्वती जी के मुखचन्द्र का अवलोकन किया तो उनके दर्शन से मेरा मन क्षुब्ध हो उठा, मेरा वीर्य पृथ्वी पर पतित हो गया। मैंने लज्जित हो उसे अपने चरणों से छिपा दिया और गुप्तांग का मर्दन कर दिया। यह बात शिवजी जान गये। वह अत्यन्त कुपित हो मुझे मारने उठे। चारों ओर हाहाकार मच गया। विष्णु आदिक देवता शिवजी की स्तुति करने लगे। बड़ी स्तुति की। तब शिवजी ने दया कर अभयदान दिया। विष्णु आदिक सब देवता और मुनि कुछ मुस्कुरा कर पुनः परमोत्सव करने लगे।

             इधर मेरा मर्दित वीर्य कण-कण हो गया, जिससे हजारों बालखिल्य ऋषि उत्पन्न हो तत्काल ही मुझे पिता-पिता कहने लगे। इससे तुम कुपित नारद ने उन बालखिल्यों को गन्धमादन पर्वत पर चले जाने की आज्ञा दी। वे शंकर भगवान को नमस्कार कर गन्धमादन पर्वत पर तप करने चले गये और विष्णु आदिक देवताओं से आश्वासित मैं निर्भय समर्थ शंकरजी की स्तुति करने लगा। हाथ जोड़ कर बहुत प्रणाम किया। तब शिवजी ने प्रसन्न होकर मुझे सृष्टि रचने का वर दिया। सबको आनन्द हो गया।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का उनचासवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *