गतांक से आगे उन्नीसवां अध्याय कथा-प्रसंग
ब्रह्माजी पर शिवजी का कोप
ब्रह्मा जी बोले – कन्या-दान के पश्चात् दक्ष ने शिव के लिये बहुत दहेज दिया। ब्राह्मणों को भी बहुत-सा धन दिया। तब लक्ष्मी सहित विष्णु ने उठ कर शिव के पास आ हाथ जोड़कर कहा- हे महादेवजी। आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के पिता और सती सबकी माता हैं। अतएव अब इस सती रूप शक्ति से देवताओं, मनुष्यों और सज्जनों का कल्याण कीजिये। तब शिवजी ने हंस कर कहा-एवमस्तु। यह सुन कर विष्णुजी अपने स्थान को चले गये।
तदनन्दत सती और शिव ने मेरी आज्ञा से यथाविधि अग्नि की प्रदक्षिणा की और गीत-नृत्यादि का अद्भुत महोत्सव हुआ। शिव की माया ने देवताओं, मनुष्यों और राक्षसों सहित सारे विश्व को मोहित कर दिया। मैं भी मोहित हो गया। विवाह कराते समय दक्ष की पुत्री पतिव्रता सती को देखकर कामाविष्ट हो गया और उसका मुख देखने की इच्छा करने लगा। परन्तु पतिव्रता सती ने लज्जा से अपना मुख ऐसा ढंक रखा था कि मैं देख नहीं सकता था। तब मुझ कामार्त्त ने उसका मुख देखने का उपाय विचारा और अग्नि कुण्ड में बहुत सा गीला ईंधन डाल कर थोड़ी सी घी की आहुति दे दी, जिससे गीले ईंधन से धुआं उत्पन्न होने लगा और अंधेरा हो गया। फिर तो सती के मुख से वस्त्र हटा कर मैंने उसका मुख देख लिया। मेरी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न हो गया। बर्फ के समान मेरी वीर्य की चार बूंदें पृथ्वी पर गिर पड़ीं मैं शंकित हो उसे छिपाने लगा। परन्तु शिवजी ने अपने दिव्य नेत्रों से मेरा वीर्य-पतन देख लिया। तब उन्होंने क्रुद्ध होकर कहा- रे पापात्मा। तूने यह क्या निन्दित कार्य किया? विवाह के समय मेरी स्त्री का मुख अनुराग से देखा। क्या जानता था कि शिव को इसका पता नहीं चलेगा? रे ब्रह्मन्! त्रैलोक्य में मुझसे कुछ छिपा नहीं है। जैसे तिलों में तेल व्याप्त है वैसे ही स्थावर, जंगम सबका मैं अन्तर्यामी हूं।
ऐसा कह कर शिवजी ने मुझे मारने के लिये त्रिशूल उठा लिया। मरीचि आदिक मेरे मानस-पुत्र हाहाकार करने लगे। भयभीत देवता शंकरजी की स्तुति करने लगे। दक्ष ने भी सामने जा हाथ उठाकर शिवजी को शीघ्र ही रोका। शिवजी ने कहा-विष्णुजी के कहने के अनुसार मैं सती को काम-दृष्टि से देखने वाले को मार डालूंगा। ब्रह्मा ने आशा भरे नेत्रों से सती को क्यों देखा? इसका वीर्यपात भी हो गया। अतएव मैं इस अपराधी का वध करूंगा। शिवजी के ऐसा कहते ही सारे देवता कांप उठे। उसी क्षण विष्णुजी ने आकर क्रोधान्वित शिवजी की बड़ी स्तुति की। दृढ़व्रती शंकर ने कहा हे विष्णो, तुम मुझे प्राणों से भी प्रिय हो। मुझे हटाओ नहीं, इस दुष्ट को मारने दो। यह ब्रह्मा बड़ा दुष्ट है। मैं इस महापापी को मारूंगा। अब सृष्टि को मैं स्वयं ही रचूंगा अथवा अपने तेज से दूसरा ब्रह्मा बना लूंगा। इस पर विष्णुजी ने मुस्कुराते हुए कहा-हे ईश, प्रतिज्ञा दूसरों के लिये होती है, अपने लिये नहीं। आप विचार कीजिये। यहां प्रतिज्ञा पूर्ण करने की बात नहीं है। हम तीनों देवता आपही के स्वरूप हैं। शिवजी ने कहा- नहीं। यह ब्रह्मा प्रत्यक्ष भिन्न है। विष्णुजी ने कहा-नहीं। न तो ब्रह्मा आपसे भिन्न हैं और न मैं तथा आप भी मुझसे भिन्न नहीं हैं। हे सर्वज्ञ। आप सब कुछ जानते हैं। परन्तु इसी बहाने सबको सुनाना चाहते हैं। इससे क्या होगा? क्या हम तीनों देवताओं में कुछ अन्तर पड़ सकता है? कदापि नहीं? क्या हम तीनों देवताओं में कुछ अन्तर पड़ सकता है? कदापित नहीं, आप शिव ही अनन्त और सर्वरूप हैं जिसमें नित्य और दीर्घादि का कुछ विशेषण नहीं है। विष्णुजी के इस प्रकार बहुत कहने पर शिवजी ने मुझे नहीं मारा और वे महादेव फिर प्रसन्न हो गये।
इति श्रीशिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का उन्नीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः