ब्रह्माजी द्वारा प्रकृति के पच्चीस तत्वों का वर्णन


ब्रह्माजी बोले- हे ब्रह्मन्, तुमने लोक कल्याणकारी यह बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है जिसे भगवान विष्णु भी नहीं जानते। महाप्रलय के समय में सब स्थावर-जंगम के नष्ट होने पर, जब सूर्य, ग्रह ताराओं से रहित होकर सब अन्धकारमय हो गया था और चन्द्र, दिन-रात, अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल कुछ भी नहीं था, प्रधान आकाश और अन्य तेज भी शून्य हो गया था, तब सुई से भेदन करने योग्य निरन्तर घोर अन्धकार में वह एक सद्ब्रह्म ही था जिसको सत् कहते हैं। जब सत्-असत् स्वरूप कुछ भी नहीं रह गया और जिसको योगी निरन्तर हृदयाकाश में देखते हैं, जो मन, वाणी से परे, इन्द्रियों के विषय से रहित नाम और वर्ण रहित, स्थूल तथा सूक्ष्म भी नहीं है। जिसमें ह्रस्व, दीर्घ एवं लघु, गुरु, घटना-बढ़ना भी कुछ नहीं होता। श्रुति भी जिसकी सत्ता को चकित होकर कहती है। वह सत्य, ज्ञान और अनन्त स्वरूप तथा परमानन्द परम पुरुष है। जो ज्ञानमय और शोभायुक्त है। जो अमूर्त परतत्व है, वही सदाशिव की मूर्ति है। इसी को पण्डित अर्वाचीन और पराचीन ईश्वर की मूर्ति कहते हैं। उसने अपने शरीर से स्वच्छन्द शरीर वाली, कभी नाश न होने वाली शक्ति प्रकट की, वही प्रधान प्रकृति, वही गुणवती माया और वही विकार से रहित बुद्धि तत्व जननी कहलायी। वही शक्ति अम्बिका, प्रकृति, सम्पूर्ण लोकों की ईश्वरी, त्रिदेवों की माता, नित्य और मूल कारण कही गयी, जिसकी आठ भुजाएं हैं और जो विचित्र मुखवाली तथा शुभ्रा हैं। अचिन्तय तेज से युक्त, सबको उत्पन्न करने वाली अकेली ही वह माया संयोग से अनेक प्रकार की हो जाती है और शिवशंकर जिनका कोई ईश्वर नहीं है, वही पर-पुरुष ईश्वर हो जो शिर पर गंगा को धारण किये, ललाट पर चन्द्रमा धारण किये और तीन नेत्र वाले हैं, जिनके पांच मुख और दस भुजाएं हैं। जो त्रिशूलधारी, प्रसन्नचित्त, कपूर के समान गौर शरीर एवं भस्म लगाये और काल स्वरूप भगवान् हैं। उन्होंने उस शक्ति को साथ लेकर शिव-लोक नामक क्षेत्र की रचना की। उसी उत्तम क्षेत्र को काशी कहते हैं, जो परम मोक्ष को देने वाली और सर्वोपरि विराजमान है। उस क्षेत्र में परमानन्द स्वरूप शिव-पार्वती शक्ति सहित निवास करते हैं।
हे मुने, प्रलयकाल में भी वह क्षेत्र शिव पार्वती से रहित नहीं होता और इसी से उसको अविमुक्त कहते हैं। धनुषधारी शिवजी ने पहले इसमें एक आनन्दवन बनाया था। उस आनन्दवन में शिवा-शिव के रमण करते रहने पर हे नारदजी! उन्हें किसी दूसरे पुरुष के निर्माण की इच्छा हुई और उन्होंने सोचा कि हम इसका भार किसी दूसरे पर देकर शान्ति से काशी में केवल शयन करें। इस प्रकार निश्चय करके उनके दक्षिण के दसवें अंश में सुधारूप आसव का व्यापार किया जिससे त्रिलोकी में एक सुन्दर पुरुष का आविर्भाव हुआ, जो शान्त और सत्वगुण से युक्त एवं गम्भीरता में सागर के समान था। तब उस अजेय पुरुष ने प्रकट होकर परमेश्वर शम्भु को प्रणाम कर कहा – हे स्वामिन, मेरा नाम कह कर मेरे कर्मों को तो बतलाइये। यह सुन कर प्रभु शिवजी हंस कर बोले कि सर्वत्र व्यापक होने से जगत में तुम्हारा विष्णु नाम प्रसिद्ध होगा तथा भक्तों को सुख देने वाले तुम्हारे और भी बहुत से नाम होंगे। तुम परम कार्य-साधन के लिये दृढ़ता से तप करो। ऐसा कह कर शंकरजी ने अपने श्वास-मार्ग से वेदों को दिया। तब अच्युत (विष्णु) ने शिवजी को नमस्कार कर बड़ा तप किया और शिवजी अन्तर्ध्यान हो गये।
विष्णु जी ने बारह हजार दिव्य वर्ष तक तप किया, किन्तु तब से अब तक उन्होंने अपने मनोरथ कल्याणकारी शम्भु के कभी दर्शन न पाये। जब उन्हें इसकी चिन्ता हुई तो शिवा ने यह शुभ वाणी उत्पन्न की कि, तुम अपने संशय को दूर करने के लिये फिर तप करो। विष्णुजी ने फिर बहुत दिन तक घोर तप किया। तब शिवजी की माया से विष्णु के शरीर से अनेक प्रकार की जलधाराएं निकलीं और वह सब जल शून्य में व्याप्त होकर फिर ब्रह्मरूप हो गया, जिसके स्पर्श से पाप नाश होते हैं। फिर तो वे पुरुष विष्णु जी थक कर प्रसन्नता से बहुत काल तक मोहित हुए और स्वयं ही उस जल पर सो गये। उसी समय उनका श्रुतिसम्मत नारायण नाम भी पड़ा और प्रकृति-पुरुष के बिना उस समय कुछ भी नहीं था। उसी समय में उन महात्मा से सब तत्वों की उत्पत्ति हुई। फिर उनका विस्तार हुआ। पहले प्रकृति से महान और महान से तीन गुण उत्पन्न हुए। फिर उससे तीन गुण और भेदवाला अहंकार उत्पन्न हुआ। उससे तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध), पंचभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) प्रकट हुए और उससे नेत्र, कान, नाक, जिव्हा और त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियां तथा वाणी, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ – कर्मेन्द्रियां उत्पन्न हुईं। इस प्रकार पुरुष के बिना यह सब प्रकृति का जड़ रूप कार्य हुआ, जो सब तत्व शिवजी की इच्छा से चौबीस प्रकार के हैं। ये सब एकत्र होकर ब्रह्मरूप जल में सो रहे।
इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय रुद्र संहिता का छठवां अध्याय समाप्त।

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