गतांक से आगे, बयालीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
बारात की अगवानी
ब्रह्माजी बोले – जब यह समाचार गिरिजा को मिला कि बारात नगर के निकट आ गयी है तो वह बड़ी ही हर्षित हो ब्राह्मणों को अग्रणी बना सब पर्वतों को अगवानी के लिए भेज दिया तथा हिमालय स्वयं भी अपने को बड़ा भाग्यशाली समझ आगे आया। देव-सेना के दर्शन कर उसके हर्ष का अन्त न रहा। देव-समाज और पर्वत-समाज ने एक दूसरे का दर्शन कर बड़ा सुख माना। मानो सुख पूर्वक पूरब और पश्चिम के दो समुद्र मिल गये हों। देवताओं तथा पर्वतों ने परस्पर मिलकर अपने को कृतकृत्य माना।
तदनन्तर शिवजी को देखकर हिमालय ने प्रणाम किया और समस्त पर्वतों तथा ब्राह्मणों ने सदाशिव को प्रणाम किया। उस समय बैल पर बैठे हुए शिवजी का मुख प्रसन्न था तथा वे अनके दिव्य आभूषणों से युक्त परम देदीप्यमान हो रहे थे। उनके शरीर पर अत्यन्त बारीक सुन्दर रेशमी वस्त्र बड़ा शोभित हो रहा था। सिर पर रत्नजड़ित मुकुट था, श्वेत कान्ति थी और वे मन्द-मन्द मुस्करा रहे थे। भूषणों के स्थान में वे सर्पों के भूषण पहने थे, जिससे उनके अंगों की अद्भुत कान्ति और दिव्य प्रभा हो रही थी। लोकपाल हाथों में चंमर लिये उनकी सेवा कर रहे थे। उनके बायें भाग में मैं, दाहिने विष्णु, पीछे इन्द्र और इधर-उधर सब देवतागण विराजमान थे। ये सभी वरदानी शंकर की स्तुति कर रहे थे।
इसी समय गरुड़ पर बैठे विष्णुजी को और हंस पर बैठे मुझको देखकर हिमाचल ने आदर पूर्वक प्रणाम किया और शिवजी के इधर-उधर तथा पीछे वाले सब देवताओं को प्रणाम किया। फिर शिवाज्ञा से हिमालय सबके आगे-आगे होकर अपने नगर को चला और पीछे शेष देवगण शिवजी के साथ चले। सभी हिमालय के नगर को देखकर उसकी प्रशंसा करते हुए वहां गये जहां शिखर पर सबके ठहरने का सजा हुआ स्थान बना था। वहां पर भी हिमाचल ने उत्साहपूर्वक वर का स्वागत किया और समस्त देवता, मुनि तथा गण अपने-अपने सुन्दर श्रृंगार कर शिवजी के साथ हिमाचल के घर चले। उस समय मैना ने शिवजी को देखने की इच्छा प्रकट की। हे मुनि, तब तुम बुलाये गये और तुम मन ही मन शिवजी को प्रणाम कर उनकी अभिलाषाओं को पूर्ण करने की इच्छा से वहां गये। वहां आश्चर्य चकित हो मैना ने तुमसे मदहारी शंकर के रूप को देखने की इच्छा प्रकट की।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का बयालीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः