अठारहवां अध्याय
शिव पुराण गतांक से आगे...
कथा-प्रसंग
बन्ध मोक्षादि शिवलिंग का माहात्म्य
ऋषि बोले - हे सर्वार्थवित्तम सूत जी, बन्धन और मोक्ष क्या है?
सूतजी बोले- हे ऋषियो, मैं बन्धन और मोक्ष के उपाय कहता हूं, ध्यान से सुनिये। प्रकृति के आठ बन्धनों के कारण ही आत्मा को जीव संज्ञा हुई है। इनसे छूटकर वह मुक्ति को पाता है। प्रकृति के आगे बुद्धि और बुद्धि के आगे गुणात्मक अहंकार और पंचतंमात्रा यही सब आठों प्रकृति हैं। इन्हीं आठों से यह देह है और इससे जो कुछ क्रिया हो रही है इसी का नाम कर्म है। फिर कर्म से देह इस प्रकार बारम्बार होते हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण ये तीन प्रकार के शरीर होते हैं। स्थूल व्यापार करता है, सूक्ष्म इन्द्रियों का भोग करता है तथा कारण शरीर आत्मा के उपभोग के निमित्त हैं। कर्मों के द्वारा ही यह पाप-पुण्य भोगता है और इन्हीं से सुख-दुःख की प्राप्ति होती है। इस काल में यह जीव कर्मरूपी डोरे से बारम्बार बंधकर, कर्मों से, तीनों शरीर सहित चक्रवत् सदैव भ्रमता रहता है। दूर तो तब हो जब चक्रकर्त्ता का पूजन करे। आठ प्रकृति ही आठ चक्र हैं। शिवजी इनसे परे हैं। वही चक्रकर्त्ता हैं, वहीं आठों को वश में किये रहते हैं। वे शिवजी सर्वज्ञ, निस्पृह और परिपूर्ण हैं। उन महेश की अनन्त शक्ति को वेद जानता है। उनकी प्रसन्नता के लिए शिव का ही पूजन करना चाहिए। जो मन, वचन, शरीर और धन से बेरलिंग या भक्तजनों में शिव-भावना करके उनकी पूजा करते हैं, उन पर महेश, जो प्रकृति से परे शिव हैं निःसन्देह अवश्य ही प्रसन्न होते हैं और तब उस प्रकार वह मुक्त और आत्माराम हो जाता है। क्योंकि तब उसका कर्मदेह भी उसके अपने वश में हो जाता है और उसका फिर शिवलोक में वास होता है। तब वह साम्ब के समीप हो जाता है और शिव की समानता को प्राप्त कर उनके महाप्रसाद के लाभ से उसकी बुद्धि अपने वश में हो जाती है।
इस प्रकार शिवजी का मानस ऐश्वर्य बिना यन्त्र के ही प्राप्त हो जाता है, जिसमें सर्वज्ञता आदि ऐश्वर्य सब कुछ उन्हें प्राप्त होता है। उसी को वेद शास्त्रज्ञ सायुज्य मुक्ति भी कहते हैं। अतएव शिवजी को प्रसन्न करने के लिए शिवजी की पूजा करे, शिव की क्रिया, शिव का तप और शिव का जप करे। जब तक सो न जावे शिव के ही ज्ञान, ध्यान और उनके नामादिक अभ्यास में लगा रहे और मृत्यु पर्यन्त ऐसे ही समय व्यतीत करे। पहले कहे हुए मंत्रों द्वारा पुष्प चढ़ाकर शिवजी की अर्चना करे तो मंगल की प्राप्ति होती है।
इतना सुनकर ऋषियों ने कहा- हे सूत जी, अब लिंगादि में शिवजी की पूजा का विधान बतलाइये।
सूतजी बोले- हे ब्राह्मणों, मैं लिंगादि का पूजन विधान क्रमशः बतलाता हूं ध्यान पूर्वक सुनिये। प्रणव पहला लिंग है जिससे सब कामनाएं पूर्ण होती है। वह स्थूल भी है और सूक्ष्म भी। उसी को पंचाक्षर भी कहते हैं। उसकी पूजा ही मोक्ष है। इसके अतिरिक्त पुरुषार्थ से और प्रकृति के भी बनाये हुए बहुत से लिंग हैं जिन्हें शिवजी ही जानते हैं, अन्य नहीं, किन्तु पृथ्वी के विकार से मैं पांच लिंग कहता हूं। 1. स्वयंभू लिंग, 2. बिन्दु लिंग, 3. प्रतिष्ठित लिंग, 4 चर लिंग और 5. गुरु लिंग। जो लिंग किसी देवता या ऋषि के तप से पृथ्वी को फोड़कर वहां स्वयं निकला हो वह स्वयंभू लिंग कहलाता है। इसी प्रकार स्वर्ण, चांदी और पृथ्वी आदि की वेदिका में या लिंग को प्रणव मंत्र से पत्र पर लिखकर उसकी प्रतिष्ठा और आवाहन करे तो वह बिन्दु नादमय लिंग स्थावर और जंगम रूप शिव-दर्शन के योग्य है। वैसे तो जिस-जिस में शिवजी का विश्वास हो उसमें ही वह फल देते हैं। विधिपूर्वक लिंग को संपुट पात्र में रखकर पृथक् गृह में स्थापना करे और नित्य पूजन-भोजन निवेदन करे, यह गृहस्थ के लिए उचित है। निवृत्त हुए जनों को सूक्ष्म लिंग का ही विधान है। उनके लिए विभूति से अर्चन कर विभूति ही निवेदन करना योग्य है। क्योंकि विभूति का एक अलग ही महत्त्व है। शिव का भक्त शिव स्वरूप हो जाता है। अतः स्त्री हो या पुरुष उसे सदैव भस्म धारण करना चाहिए। दिन हो या रात किसी समय भी सजल भस्म को त्रिपुण्ड सहित धारण कर जो शिव की पूजा करता है उसे निश्चय ही शिव पूजन का पूरा फल मिलता है। शिव मंत्र द्वारा भस्म धारण करके श्रेष्ठ आश्रमी होता है। शिव परायण ही शिवाश्रमी है। शिवजी के व्रती को अपवित्रता और सूतक नहीं लगता, क्योंकि वह भस्म लगाये रहता है। गुरु के हाथों उससे सीखकर नित्य भस्म धारण करना योग्य है। वही सच्चा गुरु है जो शिष्य के राजस, तामस आदि तीनों गुणों को नाश कर शिव का बोध कराता है। इसी कारण ज्ञानी गुरु सर्वथा ही पूजनीय है। शिष्य पुत्र के समान है। वही सच्च शिष्य है जो गुरु के शासन को स्वीकार करता है। इसी से यह मंत्र पुत्र भी कहा जाता है। इसको उचित है कि गुरु रूप पिता की सर्वदा पूजा करे। उत्पन्न करने वाला पिता पुत्र को संसार में डुबा देता है, परन्तु ज्ञानदाता गुरु रूप पिता संसार से पार कर देता है। इस प्रकार दोनों का अन्तर जानकर गुरु रूप पिता का पूजन करना योग्य है।
शेष अगले अंक में...