गतांक से आगे, बीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
बड़वानल की कथा
नारदजी बोले – हे ब्रह्मन्, शिवजी के नेत्र से उत्पन्न अग्नि कहां गयी? शिवजी के उस चरित्र को मुझे सुनाईये।
ब्रह्माजी बोले- शिवजी ने तीसरे नेत्र की अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया। सारे संसार में हाहाकार मच गया। सब देवता और ऋषि मेरी शरण में आये। उस दुःख को सुनाया और कहा कि निष्प्रयोजन ही वह अग्नि सारे संसार को जला रही है। तब मैं उस अग्नि के पास गया। वह काम को जला अट्टहास करके जल रही थी। वहां पहुंच मैंने शिवजी की कृपा से उसे शीघ्र ही रोक दिया। उस बड़वा को लेकर मैं समुद्र की ओर चला गया। मुझे आते हुए देखकर समुद्र ने दौड़कर मेरा स्वागत किया। मैंने सब कथा बतलाकर उससे उस अग्नि को अपने में तब तक स्थिर रखने की मन्त्रणा दी, जब तक प्रलय नहीं होता। मैंने कहा कि, हे समुद्र, उस समय मैं यहां आकर स्वयं ही वास करूंगा। तब तुम शंकरजी की इस क्रोधाग्नि को छोड़ देना। तब तक यह तुम्हें मर्यादित रखने के लिये तुम्हारे विशेष जल को पीता रहेगा। परन्तु तुम इसे सावधानी से धारण किये रहना, नहीं तो यह हाथ नहीं आयेगा।
समुद्र ने कहा- अच्छा, मेरे सिवा इसे कोई धारण भी तो नहीं कर सकता। क्योंकि यह बड़वा शिवजी के क्रोध से उत्पन्न हुआ है, हे मुने, तब मैं अपने लोक को चला आया। समुद्र भी अपने में समाहित हो गया। संसार में शान्ति स्थापित हो गयी।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का बीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः