प्रणव-व्याख्या

गतांक से आगे... 
आठवां अध्याय
कथा-प्रसंग
  ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ, जब हम दोनों का गर्व दूर हो गया तब सबके प्रभु, दीनों के पालक, गर्व प्रहारी, अव्यय शिवजी ने दया कर यह गम्भीर वाणी सुनाई कि, हे देवताओ-ओ-ओ--। तब उस महानाद को सुनकर मैंने सोचा कि यह क्या है? उसी समय देवों के आराध्य विष्णुजी ने उस लिंग के दक्षिण भाग में सनातन आद्यवर्ण अकार को और उसके उत्तर भाग में उकार को देखा। फिर मकार को मध्य में और अन्त में ओम् को देखा जो सभी सूर्य और चन्द्र मण्डल की भांति स्थित थे और जिसके आदि, अन्त और मध्य का कुछ भी पता न था तथा सत्य, आनन्द और अमृत स्वरूप को परब्रह्म परायण ही दृष्टिगोचर हो रहा था। परन्तु यह कहां से प्रकट हुआ है इस अग्नि सदृश की हम परीक्षा करें और इसके नीचे की ओर जाकर देखें। हम उस वेद शब्द से उभय वेष वाले विश्वात्मा का विचार कर ही रहे थे कि उसी समय वहां एक परम ऋषि का आविर्भाव हो गया। विष्णु जी ने उस ऋषि से पूछ-समझ कर एक दूसरे ब्रह्मशरीरी शिवजी का ज्ञान प्राप्त किया, जोकि अचिन्तनीय, वाणी से अप्राप्त, मन का गम्य नहीं और केवल एक अक्षर ओंकार से ही जाना जा सकता है। वही एकाक्षर रूप ऋत (सत्य), परम कारण, सत्य आनन्द, अमृत, परात्पर और परब्रह्म है। उसी एकाक्षर अकार से भगवान् बीजस्वरूप, अण्ड से उत्पन्न ब्रह्माजी हैं और उसी एकाक्षर उकार से हरि (विष्णु) परम कारण है। फिर उसी महार से नील लोहित महादेवजी हैं। परन्तु सबका सृष्टिकर्ता अकार ही है। उकार मोहन करने वाला है और मकार तो नित्य ही अनुग्रहकर्ता है। मकार विभु और बीजी है एवं अकार बीज है। ऐसे ही उकार रूप प्रधान पुरुष ईश्वर हरि योनि अर्थात् कारण हैं और बीजी बीज और योनि, यह नाद संज्ञा वाले महेश्वर ही है। इन्हीं प्रभु बीजी के लिंग से अकार, उकार रूप से योनि में गिर कर चारों ओर बढ़ने लगा। उससे सोने का अवेद्य अर्थात् न जानने योग्य और अलक्षण अर्थात् लक्षण से रहित एक अण्ड उत्पन्न हुआ, जो बहुत वर्षों तक जल में स्थित रहा है। हजार वर्ष के बाद भगवान ने इनके दो भाग किये। जब जल में स्थित इस अण्ड को ईश्वर ने व्याघात कर दो भाग किया, तब इसका सुवर्णमय एक कपाल ऊपर स्थित हुआ जिससे द्यु अर्थात् स्वर्गलोक प्रकट हुआ और कपाल के नीचे के भाग से पांच तत्वों वाली पृथ्वी प्रकट हुई। फिर उस अण्ड से मकार नामक चार भुजा वाले भव अर्थात् शंकर प्रकट हुए, जो सब लोकों के रचयिता और वही तीन रूपधारी प्रभु हुए। इसी कारण यजुर्वेदीय इनको ‘ओम् ओम्’ ऐसा कहते हैं। यजु के वचन सुन ऋक् और साम ने भी सादर ‘हे हरे ब्रह्मन्’ कहा। तब इस प्रकार इन देवेश को यथायोग्य जान कर सबने उत्पन्न मंत्रों से इन महोदय महेश्वर महादेव की स्तुति करना आरम्भ की और उसी समय से विश्व के पालक भगवान विष्णु मेरे साथ ही उस एक सुन्दर रूप को देखने लगे जिसके पांच मुख, दस भुजा, कपूर के समान गौर वर्ण, परम कान्तिमान्, अनेक भूषणों से भूषित, महान्, उदार, महावीर्यवान् और महापुरुषों के लक्षणों से युक्त थे और जिन्हें देखकर हरि कृतार्थ हो गये। तब तक परमेश्वर महेश भगवान प्रसन्न होकर अपने दिव्य शब्दमय रूप से स्थित हो गये। उन अगुण गुणात्मा का शब्दमय रूप देखकर मैं भी बहुत प्रसन्न हुआ।
  फिर हम दोनों ने उन्हें नमस्कार किया। तदनन्तर उन्हीं से सुन्दर अड़तीस अक्षरों वाला वह मंत्र प्रकट हुआ, जो बुद्धिदायक और धर्म अर्थ का साधन है। उसे गायत्री कहते हैं। यह गात्री चारों कालों में उत्तम और पंचाशित ‘ ओम् नमः शिवाय’ आठ कलाओं से युक्त है। जिससे अभिचार अर्थात् मारण आदि कर्म होते हैं। सबमें अक्षरों की भिन्न-भिन्न न्यूनाधिक क्रम संख्या होती है। इस श्रेष्ठ मंत्र के कुल इकसठ वर्ण हैं। फिर मृत्युंजय मंत्र है। जिसमें ‘ओम् जूं सः’ अथवा ‘त्रयम्बकं यजामहे’ इत्यादि कहा जाता है। इसके साथ ही पंचाक्षर मंत्र है जिसमें केवल ‘नमः शिवाय’ मंत्र और ‘क्षम्यो’ चिन्तामणि मंत्र और दक्षिण मूर्ति मंत्र उत्पन्न हुआ। पश्चात् शिव का महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ नामक मंत्र हुआ और इन पांचों मंत्रों को विष्णुजी ने ग्रहण कर जपना आरम्भ किया। फिर ऋक्, यजु. साम सहित मैंने और विष्णु ने उन वरदायक साम्ब शिव ईश्वर की प्रसन्नचित्त से स्तुति करना आरम्भ की।
इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्र-संहिता का आठवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

		

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *