सत्रहवां अध्याय
गतांक से आगे...
कथा-प्रसंग
प्रणव पंचाक्षरी का माहात्म्य
ऋषियों ने कहा - हे महामुने। प्रणव एवं षड्लिंग का क्या माहात्म्य है तथा शिवजी की भक्ति-पूजा का क्या विधान है, हमें बतलाइये।
सूतजी ने कहा- हे ऋषियो यह आप लोगों ने बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया। इसका उत्तर तो श्री महादेवजी ही जानते हैं, अन्य कोई नहीं। फिर भी शिवजी की कृपा से मैं आप लोगों को बतलाता हूं। श्री शिवजी हमारी और आपकी रक्षा करें। प्रकृति से उत्पन्न हुआ ‘प्र’ प्रपंच, ‘न’ नहीं और ‘व’ तुममें अर्थात् तुममें कुछ प्रपंच नहीं है। यही प्रणव का अर्थ है, जो अपने वाले को मोक्ष देता है और इसीलिए यह प्रणव कहा जाता है। यह प्रणव माया से रहित होने के कारण सर्वदा नवीन है और इसीसे पण्डित इसे प्रणव कहते हैं।
यह प्रणव सूक्ष्म, स्थूल दो प्रकार का है। इसको एकान्त में जपने से भोग की प्राप्ति होती है और जो उसे छत्तीस करोड़ जप लेता है वह योगी हो जाता है। यह अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद सहित तथा शब्द, काल, कला से युक्त है अर्थात् ‘अ, ऊ, म’, इन तीन दीर्घ अक्षरों और मात्राओं सहित प्रणव होता है, जो योगियों के हृदय में निवास करता है। यही शिव शक्ति की एकता और तृतत्त्व स्वरूप तथा समस्त पापों का नाशक भी है। प्रवृत्ति के इच्छुकों का ह्रस्व प्रणव के जप से सारे पाप स्वयं ही दूर हो जाते हैं तथा निवृत्ति के इच्छुकों को दीर्घ जप करना चाहिए। वेद के आदिम तथा दोनों समय की संध्या-वंदन में सर्वप्रथम ओंकार का प्रयोग करना चाहिए। प्रणव के नौ करोड़ जप करने से पुरुष शुद्ध हो जाता है। फिर नौ करोड़ जप से पृथ्वी का जप, फिर इतने ही जप से तेज का, इतने ही नौ करोड़ जप से वायु का और नव-नव करड़ो से गंधादि का जप होता है। हे ब्राह्मणो, नित्य सहस्र मंत्र जप करने से ओंकार से प्रबुद्ध हो शुद्ध योग को प्राप्त होता है। फिर जितेन्द्रिय होकर जो एक सौ पांच करोड़ प्रणव का जप करता है वह पंचार्णव से बाहर शिव लोक को प्राप्त होता है। जहां राजमंडप, उत्तम नन्दी का स्थान और तपरूप वृषभ के दर्शन होते हैं। जहां नन्दी का स्थान है, उसके आगे के शिव-वैभव को कोई नहीं जानता। वहां नन्दिकेश्वर बाहर स्थित होकर पंचाक्षर मंत्र की उपासना करते हैं।
महात्माओं का वाक्य है कि शिवलोक की जानकारी बिना शिव की कृपा के नहीं होती। जो ब्राह्मण और गुरु से प्राप्त शिव पंचाक्षरी का पांच लाख जप करता है उसकी आयु में वृद्धि होती है। स्त्री स्त्रीत्व से छूट जाती है, क्षत्रिय क्षत्रियत्व से छूट कर ब्राह्मण हो जाता है और पुनः मुक्त हो जाता है। वैश्य वैश्यत्व से छूट कर क्षत्रिय हो जाता है और वह ब्राह्मण कहलाता है तथा शूद्र पच्चीस जप करे तो ब्राह्मण के समान शुद्ध हो जाता है। क्योंकि यह मंत्र शिव-स्वरूप है और जो इसको धारण कर लेता है वह शिव स्वरूप हो जाता है। शिव भक्ति की यही महानता है। जो जितना ही क्रम पूर्वक शिव-मंत्र जपता है उसकी देह में शिवजी की उतनी ही सन्निकटता प्राप्त होती है, इसमें सन्देह नहीं।
शिव भक्त स्त्रियां देवी लिंगरूप हो जाती हैं और वे जितना मंत्र जपती हैं उनके शरीर में उतनी ही भगवती की समीपता प्राप्त होती है। शिवजी की पूजा से विद्वान को आनन्द की प्राप्ति होती है। शिवलिंग की पूजा शिवशक्ति की पूजा है और जो भक्त भक्ति पूर्वक षोडशोपचार युक्त पूजन करता है वह शिवरूप होकर शिव को प्राप्त हो जाता है। यह अध्याय वेद सम्मत है जो इस अध्याय को पढ़ता है या सुनता है उस पर शिवजी की अद्भुत कृपा होती है और वह सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।
इति श्री शिव महापुराण विद्येश्वर संहिता का सत्रहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः