पार्वती जन्म

ब्रह्माजी कहते हैं- कि इसके पश्चात् मैना ने फिर गर्भ धारण किया। उससे मैना की बड़ी शोभा हुई। जिस प्रकार पृथ्वी के भीतर रत्न रहते हैं उसी प्रकार पर्वतराज ने अपनी सगर्भा पत्नी को रत्नगर्भा माना और उसने जिस-जिस वस्तु की आकांक्षा की, पर्वतराज ने उसकी प्रसन्नता के लिये दिया। वैद्यों द्वारा भी गर्भ-पुष्टि के अनेकों उपचार करायें गिरिराज की प्रसन्नता की सीमा न रही। विष्णु आदि देवताओं ने आकर स्तुति की। प्राकृति दृश्यों की अपूर्व शोभा छा गयी। सर्वत्र सुखदायक वायु बहने लगी। महात्माओं को सुख किन्दु दुष्टो को दुःख हुआ। देवता आकाश में दुन्दुभि बजाते, फूलों की वर्षा करते और गन्धर्व गीत गाते। गन्धर्वों की स्त्रियां नाचतीं। इस प्रकार आकाश में नित्य ही महोत्सव होता।

उसी समय पूर्ण शक्ति शिवा सती महादेवी मैना के सामने अपने रूप में आकर प्रकट हो गईं। वसन्त ऋतु थी और चैत्र का महीना, नवमी तिथि, मृगशिरा नक्षत्र और अर्द्धरात्रि का समय था जब कि चन्द्र मण्डल से गंगा की भांति भगवती प्रकट हुईं। जैसे लक्ष्मी समुद्र से प्रकट हुईं हों, उसी प्रकार मैना के पेट से भगवती प्रकट हुईं। भगवती के प्रकट होने से शिवजी प्रसन्न हो गये और शुभसूचक सुगन्धित वायु बहने लगी। मेघ-गर्जन के साथ जल-वृष्टि और पुष्प-वृष्टि भी हुई। हिमालय पर सभी कुछ उत्पन्न होने लगा और उस नगर के सारे दुःखों का विनाश हो गया। तब विष्णु आदि सभी देवता प्रसन्न हो बड़े प्रेम से वहां जगदम्बा का दर्श करने आये और शिवा की बड़ी स्तुति की। देवताओं सहित ब्रह्माजी ने अलग स्तुति की और स्वयं मैना ने भी हे जगदम्बे, हे महेशानि, यह कह कर उन शिवा की बड़ी स्तुति की तथा यह आग्रह किया कि महेशानि, अब तुम कृपा कर एक छोटी कन्या के रूप में हो जाओ। हिमालय की प्यारी मेनिका के यह वचन सुनते ही देवी प्रसन्न हो तत्काल ही बाल रूप में हो गईं।

                 इति श्री शिव महापुराण तृतीत पार्वती खण्ड का छठवां अध्याय समाप्त। इति क्रमशः

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