गतांक से आगे, छब्बीसवां अध्याय, कथा-प्रसंग
पार्वती -जटिल संवाद
ब्रह्माजी बोले – हे नारद,, फिर परीक्षा के बहाने भगवान् शंकर स्वयं ही पार्वती जी को देखने गये। जटाजूटधारी शंकर अत्यन्त वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर दण्ड तथा छत्र ले शीघ्र ही प्रस्थान किया। वहां जाकर देखा तो सखियों से घिरी पार्वती एक पवित्र वेदी पर साक्षात् चन्द्रमा की कला के समान विराजमान हैं। तब एक ब्रह्मचारी का वेष धारण कर भक्तवत्सल भगवान उनको देखते हुए पास चले गये। तब एक ऐसे अद्भुत और तेजस्वी ब्राह्मण को अपने निकट आया देखकर देवी ने पूजन सामग्री उठा उनकी पूजा की और आदर सहित यह पूछा कि, हे वेद विदाम्बर, आप कौन हैं और कहां से आये हैं?
तब ब्राह्मण ने कहा – मैं दूसरों का उपकार करने वाला एक तपस्वी वृद्ध ब्राह्मण हूं। तुम कौन हो, किसकी कन्या हो और किसलिये इस निर्जन वन में ऐसा घोर तप कर रही हो, जो मुनियों को भी दुर्लभ है? तुम्हारे पिता का क्या नाम है? सौभाग्यवती हो। फिर तप की क्या आवश्यकता है? तुम वेद से उत्पन्न सावित्री हो अथवा लक्ष्मी, इसमें कौन हो? मैं तर्क नहीं कर सकता।
इस पर पार्वती ने कहा- हे विप्र, न तो मैं वेदप्रसू सावित्री हूं, न लक्ष्मी। मैं हिमाचल पुत्री हूं। पहले मैं सती नाम से दक्ष के घर उत्पन्न हुई थी। परन्तु वहां जब मेरे पिता ने मेरे पति की निन्दा की तो मैंने योग से अपना शरीर त्याग दिया। इस जन्म में भी मैंने शिव को प्राप्त कर लिया था। परन्तु दैवयोग से वह मुझे त्याग कर कामदेव को भस्म करके चले गये हैं, जिससे मैं उद्विग्न होकर यहां स्वर्ग की सीता के तट पर तप करने चली आयी हूं। परन्तु बहुत दिनों तक कठोर तप करने के पश्चात् भी मैं अपने प्राणवल्लभ को न प्राप्त कर सकी। अब इस समय मैं फिर अग्नि में प्रवेश करना चाहती थी तो आप आ गये जिससे थोड़ी देर के लिए ठहर गयी हूं। अब आप जाइये। मुझे शिवजी ने स्वीकार नहीं किया है, इससे अब मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी और जहां-जहां जन्म धारण करूंगी वहां-वहां शिव को ही वरूंगी।
ऐसा कह कर उस ब्राह्मण के बार-बार मना करने पर भी पार्वती अग्नि में प्रवेश कर गयी। परन्तु पार्वती के तप से अग्नि तत्क्षण शीतल हो गयी। पार्वती क्षण भर अग्नि में स्थित रहीं और पुनः स्वर्ग को गमन करने लगीं तब उस ब्राह्मण ने पूछा कि, हे भद्रे, तुम्हारा यह क्या तप है, कुछ जान नहीं पड़ता। न तो अग्नि ने ही तुझे जलाया और न तुम्हारा मनोरथ ही पूर्ण हुआ। तुम मुझ ब्राह्मण से अपना मनोरथ तो कहो ? मैं पूछता हूं कि तुम क्या वर चाहती हो? सम्पूर्ण फल तो तुम्हारे निकट उपस्थित है। यदि तुम दूसरे के निमित्त तप करती हो तो करो। इससे क्या होगा, जो रत्न को छोड़ कांच को संचित करती हो। ऐसा अनुपम सौन्दर्य तुमने व्यर्थ कर दिया। अनेकां प्रकार के वस्त्रों को त्याग कर यह चर्मादि धारणकर लिया। फिर भी तुम अपने इस तप का कारण तो कहो जिससे मुझ ब्राह्मण के इस प्रकार पूछने पर अम्बिका ने अपनी प्रिय सखी सुव्रता को प्रेरित किया तो उसने ब्राह्मण रूप धारी शंकरजी को पार्वती के तप का सब अभिप्राण कह सुनाया। उसे सुन जटाधारी रुद्र हंसने लगे और विजया से न कह कर वे जटिल रुद्र पार्वती से बोले- यह सखी जो कहती है वह तो परिहास सा ज्ञात होता है। यदि यथार्थ है तो हे पार्वती, तुम स्वयं अपने मुख से कहो। तब देवी पार्वती स्वयं ही उस ब्राह्मण से बोलीं।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का छब्बीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः