पार्वजी जी की तपस्या

             ब्रह्माजी बोले – हे देवमुनि, इस प्रकार कह कर जब तुम चले गये तब पार्वतीजी ने शंकरजी को तप द्वारा साध्य समझ कर अपनी जया-विजया नामक सखियों को साथ लेकर अपने पिता के पास जाकर उनसे तप की आज्ञा मांगी। हिमालय ने उसका अनुमोदन तो किया, परन्तु यह भी कह दिया कि मैना से पूछ लेना। यदि ऐसा हो तो इससे बढ़कर क्या होगा। पार्वतीजी ने उन दोनों सखियों को माता मैना के पास भेजा। उन्होंने पार्वती का शिवजी के लिए उत्कृष्ट तप करने की उनकी अभिलाषा व्यक्त कर आज्ञा मांगी और यह भी कह दिया कि पिता ने आज्ञा दे दी है, अब आपकी आज्ञा चाहिए। सखियों की बात सुनकर मैना मौन हो गईं। उन्होंने खिन्न होकर उन वाक्यों को स्वीकार न किया तब पार्वतीजी स्वयं ही विनय पर्वक माता के पास हाथ जोड़े हुए आयीं और बोलीं कि- हे माता, शंकरजी की प्राप्ति के लिये मैं प्रभात ही में तपोवन में तप करने के लिए जाना चाहती हंू, आज्ञा दीजिये। तब पुत्री वियोग से खिन्नमना मैना ने पुत्री को समीप बैठाकर कहा-हे शिवे, यदि तेरी तप करने की इच्छा है तो बाहर न जा और घर में ही रह कर तप कर। मेरे घर में तो सभी देवता और तीर्थ विद्यमान हैं। तुम बाहर जाने का हठ न करो। क्योंकि तेरा शरीर बहुत कोमल है और तप करना बहुत कठिन है।

             इस प्रकार मैना ने पार्वतीजी को बहुत रोका, पर शंकरजी की आराधना के बिना उन्हें सुख कहां था व शैल-प्रिया मैना ने पुत्री को बहुत दुःखी जान तप करने  की आज्ञा दे दी। माता की आज्ञा पा पार्वती माता-पिता को प्रणाम कर अपनी सखियों को साथ ले वन माैंजी और मृगछाला को धारण कर लिया और गंगोत्तरी के समीप, जहां शंकरजी ने काम को भस्म किया था, उसी गंगावतरण नामक स्थान के श्रृंगी तीर्थ मे शंकरजी का स्मरण कर तप करने लगीं। तब मन के साथ इन्द्रियों को भी रोक कर वह कठिन तप में स्थिर हो गईं। सभी ऋतुओं के कष्ट को उन्होंने सहन किया। पंचाक्षरी मंत्र में रत पार्वती सर्वकाम फलदायक महादेव जी का कठिन ध्यान करने लगीं। तब अपनी तपस्या के प्रथम वर्ष में उन्होंने फल का भोजन किया और दूसरे में पत्तों का तथा फिर पत्तांे को छोड़ निराहार भी तप करना आरम्भ किया। तब पर्ण का भी त्याग करने से देवताओं ने शिवा का नाम अपर्णा रखा। इस प्रकार एक पैर से खड़ी रह कर पंचाक्षरी मंत्र को जपते हुए जिनके केशों की जटा बन गईं थी, पार्वतीजी ने उस तपोवन में तीन हजार वर्ष व्यतीत किये। उनके इस कठोर तप को देखकर चराचर सबको ही बड़ा आश्चर्य हुआ।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का बाईसवां अध्याय समाप्त।क्रमशः

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