सोलहवां अध्याय
कथा-प्रसंग
पार्थिव पूजन तथा उसका फल
ऋषि बोले - हे सूत जी, अब आप हमें उस पार्थिव पूजन की विधि बतलाइये जिससे सभी अभीष्ट सिद्ध होते हैं।
सूतजी बोले- आपका प्रश्न बहुत ही उत्तम है। आप सुनिये मैं बतलाता हूं। हे महषियो, मिट्टी से बनाई हुई प्रतिमा का पूजन करने से पुरुष हो या स्त्री सभी के मनोरथ पूर्ण होते हैं। इसके लिये नदी, तालाब, कुआं या जल के भीतर की मिट्टी लाकर सुगन्धित द्रव्य के चूर्ण से उसका शोधन करे और अच्छे मण्डप में बैठकर दूध डालकर अपने हाथ से सुन्दर प्रतिमा बनायें। फिर पद्मासनल से स्थिर होकर उस पार्थिव प्रतिमा का आदर से पूजन करे। सर्वश्री गणेश, सूर्य, विष्णु, पार्वती, शिव की मूर्ति शिव जी के शिवलिंग का तो ब्राह्मण सदैव पूजन करे। जो इस प्रकार षोडशोपचार युक्त पूजन करता है उसके मनोरथ अवश्य ही पूर्ण होते हैं। किसी भी देवता के स्थापित किये लिंग पर तीन किलो नैवेद्य और स्वयं उत्पन्न हुए लिंग पर पांच किलो नैवेद्य चढ़ाने का नियम है। इस प्रकार जो हजार बार नैवेद्य चढ़ाता है, यदि वह ब्राह्मण है तो उेस सत्यलोक की प्राप्ति हो है, यह सत्य है। बारह अंगुल चौड़ा और पचीस अंगुल लम्बा यह लिंग का प्रमाण है तथा पन्द्रह अंगुल ऊंचा लोहे या लकड़ी के बनाये पात्र का भी नाम शिव है। ऐसे लिंगों की पूजा महापूजा कहलाती है और इनके अभिषेक से आत्शुद्धि, गन्ध चढ़ाने से पुण्य प्राप्ति, नैवेद्य चढ़ाने से आयु और तृप्ति तथा धूप देने से धन की प्राप्ति होती है। दीप से ज्ञान और ताम्बूल से भोग मिलता है। अतएव स्नान आदि से ये छः पूजन के अंग का यत्नपूर्वक साधन करे। नमस्कार और जप ये दोनों अभीष्ट दायक हैं। इनको पूजा के अन्त में अवश्य करे, क्योंकि इनसे भोग और मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं। मानसिक पूजन में भी इनको अवश्य ही व्यवहार में लावे। जो जिस देवता की पूजा करता है वह उस देवता के लोक को प्राप्त होता है। साथ ही उसे उनके बीच के लोकों में भी यथेष्ट भोग मिलते हैं। हे महर्षियो, आप श्रद्धा से सुनिये, मैं विशेष रीति से वर्णन करता हूं।
इस भूलोक में श्री गणेशजी सम्यक् प्रकार ऐसे पूजनीय हैं कि जिनसे अभीष्ट सिद्ध होता है। जैसा शिवजी ने नियत किया है उसके अनुसार तिथि, वार, नक्षत्र आदि का समुचित विचार कर जो सविधि इनकी पूजा करता है, उसके कौन से मनोरथ पूर्ण नहीं होते? गणेश पूजन से सभी पाप दूर भाग जाते हैं और वह अपने सभी अभीष्टों को पूर्ण करते हुए मोक्ष तक को पहुंच जाता है। इसी प्रकार श्री विष्णु जी का तथा और भी देवताओं की जो जिसकी पूजा करना चाहता है वह उन देवताओं के वार, तिथि, नक्षत्र का विचार कर षोडशोपचार पूजन-भजन करे तो उसके अभीष्ट की सिद्धि होती है। शिवजी का पूजन तो सब मनोरथों को देने वाला है। जो आर्द्रा नक्षत्र में और महा आर्द्रा में, माघ कृष्ण चतुर्दशी को शिवजी का पूजन करता है उसकी आयु बढ़ती, मृत्यु हरण होती और सर्वसिद्धि की प्राप्ति होती है। ऐसे ही और भी नक्षत्रों, महीनों और वारों में शिवजी की पूजा का अद्भुत माहात्म्य है। शिवजी का भजन भोग मोक्ष को देने वाला है। वारों के हिसाब से कार्तिक मास में देवताओं का यजन विशेष फलदायक होता है। विद्वानों को उचित है कि वह इस महीने में सब देवताओं का यजन करें। यम-नियम से दान, तप, होम ओर जप करे, क्योंकि कार्तिक में देवताओं का यजन सर्व भोगप्रद और सर्व व्याधिहर्त्ता है। कार्तिक मास में रविवार के दिन जो सूर्य की पूजा करता है और तेल तथा कपास का दान करता है उसको यदि कुष्ठ रोग है तो वह दूर हो जाता है। इस प्रकार शिवजी की पूजा के अनेक विधान हैं। जो अपने मन को या जीवन को शिवजी के अर्पण कर देता है उसे शिवजी सायुज्य मुक्ति प्रदान करते हैं। ‘योनि’ और ‘लिंग’ इन दोनों स्वरूपों के शिवजी के स्वरूप में समाविष्ट होने के कारण शिवजी जगत् के जनम-निरूपक हैं और इस नाते से जन्म की निवृत्ति के लिए श्री शिवजी की जन्म पूजा का अलग विधान भी है। जैसे अखिल जगत् विन्दुनादात्मक है, जिसमें ‘बिन्दु’ शक्ति है और -नाद’ नाम शिवजी का है। बिन्दु का आधार नाद है और जगत् का आधार बिन्दु है। अतः ये दोनों ही जगत् के आधार हुए। बिन्दु देवी और नाद शिव हैं। इसी से यही दोनों शिव-लिंग इस नाम से कहे गये। अतः जन्म की निवृत्ति के लिए शिव-लिंग को पूजे। देवी रूप माता बिन्दु’ और शिव रूप पिता ‘नाद’ हैं। पूज्य माता-पिता की पूजा करने से निश्चय ही परमानन्द प्राप्त होता है। जिसे परमानन्द की पूजा करने से निश्चय ही परमानन्द प्राप्त होता है। जिसे परमानन्द की इच्छा हो, वह शिव-लिंग की पूजा करे। जैसे, जो पुत्र माता-पिता की सेवा करता हैउस पर माता-पिता कृपालु रहते हैं, वैसे ही शिव-लिंग माता-पिता के इस मुख्य रूप को जानकर उनकी पूजा करे।
हे मुनिपुंगवो, जैसे भर्गभर्गा अर्थात् पुरुष और प्रकृति ये ही दो जन्म के मुख्य हैं, वैसे ही शिव-लिंग भी हैं। पुरुष से प्रकृति में मेल ही जन्म कहलाता है और प्रकृति से व्यक्त हुआ तो दूसरा जन्म कहलाया। अतएव जन्तु-पुरुष से ही जन्म और मृत्यु बारम्बार प्राप्त करता है। माया से जन्म, जन्म से जीर्ण और इसी से जीव नाम पड़ा। जन्म होते ही यह फांसी से बंध जाता है और इसीसे इस जीव शब्द का यह अर्थ हुआ। अतएव जन्म की फांसी से छूटने के लिये जन्म लिंग को अच्छी तरह पूजे। ‘भं’ से ‘भग’ प्रकृति का नाम पड़ा और यह प्राकृत शब्द मात्रा आदि से प्राकृतितथा इन्द्रिय और भोजन से ‘भग’ का यह ‘भोग’ ऐसा शब्द हुआ। अतः मुख्य ‘भग’ तो प्रकृति और ‘भगवान्’ श्री शिवजी भगवान् कहे गये। इस प्रकार ये ही भगवान् भोग के दाता हैं और कोई भोग को देने वाला नहीं हैं। भग के स्वामी ‘भगवान्’ ही ‘भर्ग’ हैं और भग के सहित लिंग और लिंग सहित भग ही यहां और वहां नित्य भोग के लिए है। इसलिए श्रीभग वाले महादेव शिवलिंग की पूजा करना योग्य है। शिव-भक्ति के मिलाप का नाम लिंग है। शिवजी अपने लिंग के पूजन करने से प्रसन्न हो जाते हैं। जो इस शिव-लिंग का सादर पूजन करता है वह जन्माद से निवृत्त हो जाता है।
आदित्यवार के दिन पंचगव्य द्वारा शिवजी को स्नान करायें। गोबर, गोमूत्र, गोदुग्ध, गोघृत और मधु यही पंचगव्य है। फिर दुग्धादि से अलग स्नान करायें। शहद, ईख का रस और गोदुग्ध से अन्न का नैवेद्य बनाकर प्रणपूर्वक चढ़ावे। जो इस प्रकार आदित्यवार के दिन प्रणव पूर्वक महालिंग की पूजा करता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता। रुद्राक्ष धारण करने से चौथाई, विभूति धारण करने से आध, मंत्र जपने से पौन औरी पूजन से पूर्ण भक्ति प्राप्त करता है। शिवलिंग और उनके भक्तों को पूजने से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त होती है। इस अध्याय को पढ़ने और सुनने से शिवजी की दृढ़ भक्ति प्राप्त होती है।
इति श्रीशिव महापुराण विद्यष्वर-संहिता का सोलहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः