चौवनवां अध्याय(2), कथा-प्रसंग
पतिव्रताओं के धर्म-वर्णन
द्विज पत्नी ने कहा- वह पतिव्रता स्त्री धन्य और पूज्य है, जो अपने स्वामी को परमेश्वर मान उसके सदृश ही उसकी सेवा करती है। वहां तो सुख भोगती ही है और अन्त में उसे पतिलोक की भी प्राप्ति होती है। सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिल्या, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मैना और स्वाहा तथा और भी पतिव्रताएं हैं जिन्हें मैं यहां विस्तृत रूप से नहीं कह सकती, किन्तु पातिव्रताएं हैं जिन्हें मैं यहां विस्तृत रूप से नहीं कह सकती, किन्तु पातिव्रत के प्रभाव से सभी जगत् में मान्य और पूज्य हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश और देवताओं तथा ऋषियों ने भी इनको सम्मानित किया है। क्योंकि यह सत्पुरुषों के गति, दाता और दीनों पर कृपा करने वाले हैं। पतिव्रताओं का यह धर्म श्रुतियों और स्मृतियों में लिखा है। पातिव्रत परायण को उचित है कि जब पति भोजन कर लेवें, तब स्वयं भोजन करे। ऐसा करने से स्त्री को सर्वदा आनन्द की प्राप्ति होती है। पति के सो जाने पर स्वयं सोवे और पति से पहले ही जागे तथा निःछल भाव से पति की प्रिया बनी रहे और उनका हित करे। कभी बिना अलंकार के पति के सामने न जाये और पति के परदेश जाने पर तो कभी श्रृंगार ही न करे। पतिव्रता को उचित है कि वह अपने पति का कभी नाम न लेवे और पति के दुर्वचन कहने पर भी स्वयं उन्हें दुर्वचन न कहे। ताड़ना देने पर भी प्रसन्न रहे और मारने पर भी, हे स्वामिन्। ऐसा कह कर कृपा मांगे। जब पति बुलावें तब सारा कार्य छोड़कर उनके पास चली जाये और जो कार्य हो पूछ कर प्रसन्नता से उनकी आज्ञा का पालन करे, द्वार पर देर तक न ठहरे। दूसरों के घर न जाये। किसी की बात सुन कर किसी से प्रकाशित न करे। सर्वदा हितकर समय की प्रतीक्षा करे तथा पति की आज्ञा के बिना कभी तीर्थयात्रा न करे और समाज तथा किसी के उत्सव में जाने की कोई आवश्यकता नहीं। स्त्री का तीर्थ तो उसके पति का चरण है। पति का जूठन उसके लिए महाप्रसाद है। देवताओं, पितरों तथा अतिथियों को बिना भोग लगाये कभी न खाये और सेवक, गौ और भिक्षुक को भी भोजन देवे। उसे प्रतिक्षण सामग्रियों के संग्रह तथा चतुरता, प्रसन्नता और मितव्ययता का ध्यान रखना चाहिए। पति की आज्ञा के बिना स्त्री व्रत का उपवास आदि न करे। क्योंकि बिना आज्ञा के कुछ फल नहीं होता और परलोक भी बिगड़ता है। पति कैसा ही नपुंसक, रोगी, वृद्ध, और दुःखी क्यों न हो, स्त्री उसका उल्लंघन न करे। जब वह स्त्री-धर्म से (रजवती) हो तब तीन दिन किसी को मुख न दिखावे और जब तक स्नान से शुद्ध न हो जावे तब तक उसका कोई शब्द भी न सुनने पावे। पतिव्रता को उचित है कि वह अपने पति को शिव-रूप ही जाने। पति से कभी भी कातर वाक्य न बोले और न पति की निन्दा ही करे। गुरुजनों के रहते कभी भी जोर से न बोले और न उच्च स्वर से हंसे। अपने पति को कभी तू न कहे और सौत से कभी ईर्ष्या न करे। ईर्ष्या करने से वह दुर्गम होती है तथा जो स्त्री अपने पति की आंख बचा कर अन्य को देखती है वह कानी, कुमुखी तथा विरूपा होती है। जैसे, जीव बिना देह क्षणमात्र में अपवित्र हो जाता है, वैसे ही बिना पति के स्नान करने पर भी स्त्री अपवित्र रहती है, स्त्री अपना शील कभी भी भंग न करे। क्योंकि ऐसी पतिव्रताओं पर ही पृथ्वी को गर्व होता है। वही स्त्री पापनाशक है जो सर्वदा पवित्र रहती है। गृहस्थी की जड़ स्त्री है। सारे सुखों की जड़ स्त्री है, क्यांकि धर्म-फल की प्राप्ति के लिए सन्तान वृद्धि में स्त्री ही कारण है। वही सच्चा गृहस्थ है जिसके घर में पतिव्रता स्त्री है। पतिव्रता और गंगा में कोई भेद नहीं है। वे शिव और पार्वती के समान पवित्र हैं। स्त्री के लिए उसका पति ही ओमकार है और वेद तथा श्रुति है। पति तप है तो स्त्री क्षमा है। यदि पति फल है तो स्त्री सत्क्रिया। हे पार्वती, ऐसे ही स्त्री-पुरुष धन्यवाद के पात्र हैं।
इस प्रकार मैंने तुमसे एक प्रकार का पतिव्रताओं का धर्म संक्षेप में कहा। अब उनके भेद को सुनो। पतिव्रता उत्तमादि भेदों से चार प्रकार की होती है। उत्तम, मध्यम और अधम तथा निकृष्ट। जो स्त्री स्वप्न में भी अपने पति के सिवा दूसरे को नहीं देखती, वह उत्तम पतिव्रता है तथा जो दूसरे को शुद्ध बुद्धि से पिता, भ्राता तथा पुत्र के समान देखती है वह मध्यम पतिव्रता है और जो अपना धर्म विचार कर व्यभिचार नहीं करती और चरित्रवान् है वह निकृष्ट पतिव्रता है तथा जो अपने कुल के भय से व्यभिचार से बची रहती है वह अति निकृष्ट पतिव्रता है। हे शिवे, यह चारों प्रकार की पतिव्रताएं पाप को हरण करने वाली तथा लोक-परलोक में मुदित रहने वाली हैं। हे शिवे ऐसा जान कर स्त्री नित्य पति की सेवा करे। हे शैलपुत्री, ऐसा करने से तुम्हारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। हे देवि, मैं तुमसे अधिक क्या कहूं। क्योंकि तुम तो जगत् की माता महेशी हो और साक्षात् शिवजी तुम्हारे पति हैं। तुम्हारा तो नाम सुनते ही स्त्रियां पतिव्रता होंगी। हे कल्याणि, जगत के आधार के लिए ही मैंने यह उपदेश तुम्हें दिया है। ब्रह्माजी कहते हैं, ऐसा कह जब पार्वती को प्रणाम कर वह ब्राह्मण-स्त्री चुप हो गयी तो शंकर-प्रिया पार्वती को बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का चौवनवां अध्याय समाप्त।