नारद मैना संवाद(2)

             यह सुनकर मैना प्रसन्न हो गयीं और शिवजी के अद्भुत रूप वाले गणों सहित उन्हें देखने लगीं। इतने में शिवजी की अद्भुत सेना वहां आ पहुंची। उनके विविध और विकराल अंग तथा वैसे ही सब विचित्र स्वभाव थे। कोई वायुरूप धारण किये पताका के समान मर्मर शब्द कर रहे थे तो कोई-कोई टेढ़े मुख वाले तथा कोई विरूपाक्ष थे। बहुतों को विकराल दाढ़ी-मूछें थीं। कोई पंगु, कोई नेत्रहीन, कोई दण्ड पाश धारण किये, किसी के हाथ में मुद्गर और कोई विरुद्ध वाहनों पर चढ़ा हुआ था। कोई श्रृंगी बजा रहा था और कोई डमरू तथा कोई गोमुखी। कोई मुखहीन था और किसी के विकट मुख थे। बहुतां के बहुत मुख, किसी के हाथ नहीं, किसी के विकट हाथ और किसी के बहुत से हाथ थे। कोई नेत्रहीन, कोई बहु नेत्र वाला, कोई सिर विहीन और किसी के बुरे सिर थे। किसी के कान नहीं, तो किसी के बहुत से कान थे। इसी प्रकार अनेकों वेषधारी गण वहां आये। ऐसे सभी विकृत आकार वाले अगणित महावीर तथा भयंकर अनेकों प्रबल गण थे।

             हे नारद, उसी समय सब गणों सहित तुमने भगवान शंकर को भी मैना को दिखा दिया, जिन्हें देखते ही मैना शोकाकुल हो गयीं। तब उन पांच मुख तथा तीन नेत्र वाले भूति-भूषित भगवान को मैना ने बैल पर चढ़े हुए देखा तो वे सर्वथा ही अधीर हो गयीं। उनके सिर पर जटाओं का जूड़ा बंधा हुआ था। सिर पर चन्द्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रमा शोभित था। उनके दस हाथ थे और वे कपाल धारण किये हुए थे। वे व्याघ्र का चर्म ओढ़े हुए थे और उनके हाथ में पिनाक धनुष था। तब त्रिशूल लिये हुए ऐसे विरूपाक्ष और विकट रूप बनाये तथा गजचर्म ओढ़े हुए व्याकुल हृदय शंकरजी को जब तुमने मैना को दिखाया तो उनकी व्याकुलता की उस बुद्धिमती की बुद्धि जाती रही और उनसे फिर कुछ कहते न बना। तब उनकी इस दशा को देखकर तुमने उंगली से संकेत कर कहा, यह शिवजी हैं।

             हे नारद, तुम्हारा यह वचन सुनते ही मैना को बड़ा दुःख हुआ और वे तत्क्षण वायु से टूटी हुई लता के समान पृथ्वी पर गिर पड़ीं और तुमसे बोलीं- अरे दुराग्रही, तूने मुझे ठग लिया ऐसा कहते ही वे तत्क्षण मूर्च्छित हो गयीं। उनकी सखियां उन्हें चेतना में लाने का उपचार करने लगीं। धीरे-धीरे उन्हें चेतना आयी।

             इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का तैंतालीसवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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