गतांक से आगे...
पांचवां अध्याय
कथा-प्रसंग
नारद का परिभ्रमण सूत जी बोले- हे ब्राह्मणो, विष्णु जी के अन्तर्धान होने पर नारद जी भक्ति पूर्वक शिव लिंगों का दर्शन करते हुए पृथ्वी पर विचरने लगे। उन्होंने कितने ही शिव लिंगों का प्रेम पूर्वक दर्शन किया। उसी समय वे रुद्र के गण, जिन्हें उन्होंने शाप दिया था उनके (नारदजी के) समीप जाकर उनके चरणों पर गिर उनसे क्षमा मांगने लगे और कहा कि हे मुनिवर, आपका अपराध करने वाले हम वास्तव में ब्राह्मण नहीं हैं। किन्तु हम दोनों महादेव जी के गण हैं जिन्हें राज-पुत्री के स्वयंवर में माया से मोहित चित्त होकर परेश की प्रेरणा से आपने हमको शाप दिया था। उस समय हमने कुसमय जान कर मौन रहना ही अच्छा समझा था, अन्यथा आप हमारा प्राण भी ले लेते। परन्तु अब तो आप प्रसन्न होकर हम पर कृपा कीजिये। सूतजी कहते हैं कि जब उन गणों ने भक्ति और आदर से इस प्रकार प्रार्थना की तो उनके वचनों को सुनकर पश्चाताप करते हुए मुनि ने कहा- हे सत्पुरुषों मैं मान्य महादेव जी के गणों, शिवजी की इच्छा से पहले निश्चय ही मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी थी जिससे मोहवश मैंने तुम को शाप दे दिया, परन्तु जो कुछ कहा गया वह तो होना ही है, तो भी हे गणो, सुनो, मेरे अपराध को क्षमा करो। अब मैं तुम्हारे शापोद्धार कारक उपाय कहता हूं। तुम श्रेष्ठ मुनि के वीर्य से जन्म लेकर राक्षस होगे जहां तुम्हें सब प्रकार का ऐश्वर्य, प्रताप और बल प्राप्त होगा। तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के राजा और जितेन्द्रिय शिव-भक्त होगे और वहीं शिव के दूसरे शरीर से मर कर पुनः अपना पद प्राप्त करोगे। सूत जी कहते हैं कि नारद जी के इन वाक्यों को सुनकर महादेवजी के गण प्रसन्ना से अपने स्थान को चले गये। नारद जी भी शिव लिंगों का दर्शन करते हुए दूसरी ओर पृथ्वी पर पर्यटन करने लगे। चलते चलते वे काशीपुरी में काशीनाथ जी के दर्शन करने गये, जो सबके ऊपर विराजमान शिवजी को प्रिय, शिव को सुख देने वाली और शिव स्वरूपिणी नगरी हैं उसके दर्शन कर वे कृतार्थ हो गये। वहां परम आनन्द से उन्होंने काशीनाथ शिवजी का पूजन किया और उनकी महिमा का वर्णन करते हुए प्रेम से विह्वल हो गये। पश्चात् नारद जी ब्रह्मलोक को गये। वहां जाकर उन्होंने अनेक प्रकार से अपने पिता ब्रह्मा जी से शिव तत्त्व को पूछा। इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्र संहिता का पांचवां अध्याय समाप्त। क्रमशः