द्वितीय सती खण्ड प्रारम्भ सती आख्यान

     नारद जी बोले- हे ब्रह्माजी, शंकरजी की कृपा से आप सब कुछ जानते हैं। अतएव अब आप मुझे यह सुनाइये कि जो महेशान कैलासवासी और परम जितेन्द्रिय थे, जिनकी विष्णु आदि सभी देवता पूजा करते थे, जो सत्पुरुषों की गति, निर्विकार, महाप्रभु और योगी थे, वही तप करती हुई मंगलस्वरूप एक परम श्रेष्ठ स्त्री के साथ विवाह कर गृहस्थ कैसे हो गये? जो पहले दक्ष की पुत्री थीं, फिर हिमालय की कन्या हुईं, वह सती पार्वती किस प्रकार शंकर को प्राप्त हुईं? हे ब्रह्मन्, यह सब बात और भी जो हो वह सब कथा आप मुझे सुनाइये।
     सूतजी कहते हैं कि नारद जी के ऐसे वचनों को सुनकर ब्रह्माजी बोले- हे तात, हे मुनिवर्य, सुनो, अब मैं वह शुभ कथा कहता हूं, जिसे सुनकर मनुष्य का जन्म निःसन्देह सुफल हो जाता है।
     पहले मेरे एक सन्ध्या नाम की कन्या हुई जिसे देखते ही मैं काम से पीड़ित हो गया और मुझे देखकर रुद्र ने धर्म का स्मरण करते हुए मुझे मेरे और पुत्रों के साथ ही बड़ा धिक्कारा और फिर वे अपने स्थान कैलास को चले गये। तब मैंने शिवजी की माया से मोहित होकर मूर्खतावश अपने पुत्रों सहित उन्हें ही मोहित करना चाहा, परन्तु मेरे सारे प्रयत्न निष्फल हुए। तब मैंने निराश होकर पुनः शिवजी की भक्ति की तो उन्होंने बहुत कुछ मुझे समझाया। मैंने तो ईर्ष्या छोड़ दी, परन्तु हठ नहीं छोड़ा और पुनः रुद्र को मोहित करने के लिये शक्ति का सेवन किया और अपने पुत्र दक्ष से असिक्नी वीरनी नामक कन्या से सती को उत्पन्न कराया। वह दक्ष सुता उमा होकर कठिन तप कर रुद्र की स्त्री हुई, तब वे रुद्र स्वतन्त्र होकर भी सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा से रूप धारण कर मोहित हुए और रमण करने लगे। रुद्र के गृहस्थाश्रम में आकर सुख से कितने ही समय व्यतीत हो चले। उधर शिवजी की माया से दक्ष को गर्व उत्पन्न हो गया और वह परम शान्त, निर्विकारी महादेवजी की निन्दा करने लगा। उसने बड़े गर्व से एक विशाल यज्ञ किया, जिसमें उसने मुझको, विष्णुजी को तथा और भी सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों को तो बुलाया, परन्तु अपने जामाता महादेवजी और पुत्री सती को नहीं बुलाया। इस पर भी एक कौतुक करने के लिये सती अपने पिता के घर गईं। वहां यज्ञ में रुद्र का भाग न देखकर और अपने पिता से रुद्र की निन्दा सुनकर उन सबकी निन्दा करती हुई उन्होंने वहीं पर अपना शरीर त्याग दिया। यह सुन देव देवेश ने परम कुपित हो अपनी जटा का एक बाल उखाड़ कर वीरभद्र को पैदा कर दिया, जिसने जाकर दक्ष का यज्ञ विध्वंस कर उसके सिर को काट डाला तथा उपद्रव किया  समस्त लोकों में अशान्ति फैल गई। लोग दीनवत्सल रुद्र की प्रार्थना करने लगे। महात्मा महेश ने कृपा कर दक्ष को जिलाया, फिर सबका सत्कार करा यज्ञ करवाया। सती की देह से उत्पन्न ज्वाला जाकर पर्वत पर गिरी जिससे वह ज्वालामुखी होकर पूजित हुई। आज भी जिसके दर्शन से सब कामनाएं सिद्ध होती हैं। फिर वही हिमालय की पुत्री हुईं जिसका नाम पार्वती पड़ा। उसने कठिन तपस्या द्वारा शम्भु को प्राप्त किया। हे मुनीश्वरो, आप लोगों ने जो पूछा, वह मैंने बतलाया। जो मनुष्य इस कथा को सुनेगा वह सब पापों से छूट जायेगा, इसमें सन्देह नहीं है।
    इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का पहला अध्याय समाप्त। क्रमशः

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