गतांक से आगे सत्रहवां अध्याय कथा-प्रसंग
दक्ष के गृह में शिवजी का आगमन
ब्रह्मा जी बोले- इधर सती ने फिर नन्दा का व्रत किया। जब शंकरजी प्रसन्न हो प्रत्यक्ष रूप से उसे दर्शन देने गये। शंकरजी को देख सती ने किंचित् लज्जा से सिर झुका उनके चरणों में प्रणाम किया।
तब शिवजी ने कहा- वे सुव्रते, दक्ष पुत्री, मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूं। वर मांगो। उसने अभिप्राय को जानते हुए भी, किन्तु उसके मुख से वचन सुनने की इच्छा से ‘वर मांगो’ उन्होंने ऐसा कहा। तब तो सती और भी लज्जित हो गईं और उनके हृदय में जो था वह न कह सकीं। उनके अभीष्ट को लज्जा ने ढंक दिया। वह शिव के वचन सुन प्रेम मग्न हो गईं। शिवजी भी यह जानकर प्रसन्न हो गये। सज्जनों के गम्य शिवजी फिर ‘वर मांगो’ वर मांगो, ऐसा कहने लगे। तब सतीजी ने अपनी लज्जा त्याग कर कहा कि, हे वरद, आप वही वर दीजिये जो आपको अच्छा लगे। सती का वाक्य पूरा भी न हुआ था कि भक्तवत्सल शिवजी ने ‘तुम मेरी अर्द्धागिनी बनो’ कह कर उन्हें यह वर दे दिया। मनोवांछित वर पाकर सती मौन हो गईं। फिर कामनायुक्त शंकर जी के समक्ष खड़ी हो, मंद-मंद मुस्काती हुई सती कामवर्द्धक हाव-भाव करने लगीं। शिवजी में श्रृंगारिक भाव जाग्रत हो गया। फिर तो उन दोनों की चित्रा और चन्द्रमा की सी अपूर्व शोभा हो गई।
सती ने हाथ जोड़ भक्तवत्सल शिवजी से नम्रतापूर्वक कहा- हे देवाधिदेव महादेव, हे प्रभो, हे जगत्पते, मेरे पिता के समक्ष विवाह विधि से आप मुझे स्वीकार करें। सती के ये वचन सुन भक्तवत्सल शंकरजी ने उन्हें प्रेम से देखा और ‘तथास्तु’ कहा। सतीजी मोह और हर्ष से युक्त हो शिवजी को समझा और उनसे आज्ञा ले माता के पास आयीं। शिवजी हिमाचल-शिखर पर अपने आश्रम में पहुंचे। सती के वियोग में अब उनकी ध्यानादिक क्रियाएं कम होने लगीं। अब उन्होंने सांसारिक गति का आश्रय लिया। मन को सावधान कर उन्होंने मुझ ब्रह्मा का स्मरण किया। मैं उनके पास पहुंचा। सरस्वती भी मेरे साथ थीं। तब सरस्वती युक्त मुझे देखकर सती के प्रेम में उत्कंठित भगवान शंकर ने मेरी ओर देखकर कहा हे ब्रह्मा, इस समय मैं स्वार्थ परायण हो गया हूं। अतएव तुम मेरी आज्ञा से दक्ष के पास जाकर कन्या देने का कोई शीघ्र उपाय करो। मुझे अब सती का वियोग सहन नहीं होता है। ऐसा कह कर सरस्वती को देखकर शिवजी वियोग के वश हो गये। शिवाज्ञा पा मैं कृतार्थ हुआ। फिर भक्तवत्सल शिवजी से बोला, हे भगवन्, आपने जो कहा है, मैं उस पर विचार करूंगा। इसमें तो मेरा और देवताओं का ही भला है। दक्ष अवश्य ही आपको अपनी कन्या देगा। फिर मैं भी आपकी आज्ञा से उनसे कहूंगा।
ऐसा कह कर मैं एक द्रुतगामी रथ पर बैठ कर शीघ्र ही दक्ष के घर पहुंचा। उधर सती अपने पिता के घर में पहुंच बड़े हर्ष से अपनी सखी द्वारा माता-पिता के पास शिवजी से प्राप्त अपने वर प्राप्ति का समाचार कहला रही थीं और उसकी प्रसन्नता में उनके माता-पिता बड़ा उत्सव कर रहे थे। तब तक सहसा मुझे वहां उपस्थित हुआ देख दक्ष ने सिर झुका कर प्रणाम किया और आसन देकर बैठाया तथा आगमन का कारण पूछा। तब मैंंने शिवजी की विकलता देख कर दक्ष से शिवजी के लिये सती को देने का सुझाव दिया। उसे सुनकर मेरा पुत्र दक्ष बड़ा प्रसन्न हुआ और कहा-ऐसा ही हेागा। मैं उत्कंठित होकर शिवजी के पास लौटा। उधर दक्ष भी इस विचार को लेकर अपनी स्त्री सहित ऐसे आनन्दित हुए मानो अमृत में स्नान किया हो। इति श्रीशिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का सत्रहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः