दक्ष की देवी आराधना

           नारदजी ने पूछा- हे ब्रह्मन्, आपने यह तो शिवाशिव का कल्याण देने वाला उत्तम चरित्र का वर्णन किया है उसे सुनकर मेरा जन्म पवित्र हो गया। अब यह कहिये कि देवी की आराधना से आपने कौन सा वर प्राप्त किया तथा वह दक्ष कन्या कैसे हुईं?

       ब्रह्माजी बोले- हे नारद, तुम समस्त मुनियों से बढ़ कर हो। व्रती दक्ष ने तप किया और वर पाया। इसके लिये मैं उन्हें पहले ही आदेश दे चुका था और वे जगदम्बिका की आराधना करने के लिये तप करने चले गये थे। उन्होंने दृढ़ता से तीन हजार दिव्य वर्षां तक नियमतः तप किया। तब दक्ष को जगदम्बिका का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। दर्शन पाकर वे कृतार्थ हो गये। उन्हें शिवा का दर्शन हुआ। शिवा दक्ष के मनोरथों को पहले ही से जानती थीं। उन्होंने दक्ष से वर मांगने को कहा।

दक्ष ने देवी से कहा- मेरे पूर्णावतार स्वामी शंकरजी ने रुद्र नाम से ब्रह्मा के पुत्र रूप में अवतार लिया है और तुम्हारा अभी अवतार नहीं हुआ है। तब शिवजी की पत्नी कौन होगी? तुम्हीं उनको मोहित कर उनकी पत्नी बनो। स्वार्थी ब्रह्माजी ने मुझे भेजा है। तब जगदम्बा ने उन्हें (दक्ष को) यह वर दे दिया कि मैं तुम्हारी स्त्री से पुत्री के रूप में उत्पन्न होऊंगी और कठिन तप कर शिव की पत्नी बनूंगी। विष्णुजी के भी सेव्य, निर्विकारी शिवजी बिना तप के नहीं प्राप्त हो सकते। पर मेरी प्रतिज्ञा स्मरण रखना। मेरा कहना असत्य नहीं हो सकता। यदि तुम मेरा अपमान करोगे तो समझ लेना मैं अपना शरीर त्याग दूंगी, क्यांकि मैं तो प्रत्येक जन्म में तुम्हारी ही कन्या बनना चाहती हूं और सर्वदा शिवजी की पत्नी बनती रहूंगी, मेरा यह दृढ़ निश्चय है और यही वर मैं तुमको देती हूं। दक्ष को ऐसा वर देकर देवी अन्तर्धान हो गयीं। दक्ष अपने घर गये और देवी मेरी कन्या होंगी, इन्हें इस विचार से बड़ी प्रसन्नता हुई।

इति श्री शिवमहापुराण द्वितीय सती खण्ड का बारहवां अध्याय समाप्त।  क्रमशः

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