गतांक से आगे, पन्द्रहवां अध्याय, कथा-प्रसंग
तारकासुर का परिचय
ब्रह्माजी ने कहा- इस प्रकार समय आने पर उसने एक बड़ा ही बलशाली पुत्र उत्पन्न किया जिसके तेज से दसों दिशाएं जलने लगीं। अनेकों अनर्थ सूचक उत्पात हुए। उसका शरीर पत्थर जैसा कठोर और पर्वत जैसा विशाल था। उसका नाम तारकासुर पड़ा। वह देवताओं को जीतने के लिए तप करने लगा। वह मधुवन में जा ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए विधिपूर्वक घोर तप में लीन हो गया। सौ वर्ष तक नीचे की ओर मुंह करके, कई प्रकार की विधियांे से उसने हजारों वर्ष तक तपस्या की। उसकी तपस्या के तेज से सभी लोक जलने लगे। इन्द्र का सिंहासन हिल उठा। समस्त देवता मेरे पास आये। मैं तारकासुर को वर देने उसके पास पहुंचा। तारक मुझे प्रणाम कर वर मांगने लगा।
उसने कहा-मुझसे बली कोई न हो। जब शिवजी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र सेनापति होकर मुझ पर शस्त्र प्रहार करे तभी मेरी मृत्यु हो। मैंने उसे यह वर दिया। वह मनोवांछित वर पा शोणितपुर को चला गया। शुक्रजी ने मेरी आज्ञा से उसे त्रिलोकी का राजा बना दिया। वह अपनी आज्ञा में चराचर का परम पीड़क हो गया। इन्द्रादि से जो चाहा ले लिया। उनका ऐरावत भी अपने पास मंगा लिया और कुबेर से नव निधि छीन लिया। वरुण के श्वेत घोड़े, ऋषियों से कामधेनु, सूर्य से उच्चैःश्रवा घोड़ा और इस प्रकार त्रिलोकी में जितनी-जितनी अच्छी वस्तुएं थीं सबको बरबस मंगा लिया। फिर यह तीनों लोकों को जीत कर इन्द्र हो गया और अद्वितीय राज्य करने लगा। देवताओं को उनके स्थान से निकाल वहां दैत्यों को बसा दिया और देवयोनि को स्वकर्म में नियुक्त कर लिया। हे नारद, तब देवता इन्द्र को अग्र्रणी बना विह्वल हो मेरे पास आये। इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का पन्द्रहवां अध्याय समाप्त।
क्रमशः