गोस्वामी जी ने श्रीरामचरित मानस का लेखन प्रारम्भ करने के पूर्व किससे प्रार्थना की और क्या कहा अयोध्या नगरी की प्रशंशा में
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अयोध्या में अपने आदर ग्रन्थ श्रीरामचरित मानस की रचना आरम्भ की थी गोस्वामी जी ने इस पवित्र ग्रन्थ की रचना किस तिथि व किस सम्वत् में की इसकी जानकारी स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने महाग्रन्थ में दी है और श्रीरामचरित मानस के सुभल और अयोध्या की पावन नगरी में प्रवाहित हो रही सरयू नदी की महानता का बखान इतने सुन्दर शब्दों मे किया है यह देखते ही बनता है। गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी लेखनी से किन-किन शब्द पुष्पों से अपने महाग्रन्थकी रचना का शुभारम्भ किया और क्या कहते हैं गोस्वामी तुलसीदास जी अयोध्या नगरी और पवित्र सरयूनदी की प्रशंसा में। गोस्वामी जी लिखते हैं-
सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा ।।
संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ।।2।।
गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी लेखनी को चलायमान बनाने के पूर्व प्रभू श्रीशिव जी को प्रणाम करते हुए लिखते हैं अब मैं आदरपूर्वक श्री शिवजी को सिर नवाकर श्री रामचन्द्रजी के गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। श्री हरि के चरणों पर सिर रखकर संवत् 1631 में इस कथा का आरम्भ करता हूँ ।।2।।
नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा ।।
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल जहाँ चलि आवहिं ।।3।।
तुलसीदास जी लिखते हैं चैत्र मास की नवमी तिथि मंगलवार को श्री अयोध्याजी में यह चरित्र प्रकाशित हुआ। जिस दिन श्री रामजी का जन्म हुआ था, वेद कहते हैं कि उस दिन सारे तीर्थ वहाँ (श्री अयोध्याजी में) चले आते हैं ।।3।।
असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा ।।
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना ।।4।।
तुलसीदास जी लिखते हैं उस दिन असुर-नाग, पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता सब अयोध्या जी में आकर श्री रघुनाथजी की सेवा करते हैं। बुद्धिमान लोग जन्म का महोत्सव मनाते हैं और श्री रामजी की सुंदर कीर्ति का गुणगान करते हैं ।।4।।
मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर ।।34।।
सज्जनों के बहुत से समूह उस दिन श्री सरयूजी के पवित्र जल में स्नान करते हैं और हृदय में सुंदर श्याम शरीर श्री रघुनाथजी का ध्यान करके उनके नाम का जाप करते हैं ।।34।।
दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना ।।
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति ।।1।।
तुलसीदास जी के अनुसार वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं ।।1।।
राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि।।
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा ।।2।।
यह शोभायमान अयोध्यापुरी श्री रामचन्द्रजी के परमधाम की देने वाली है, सब लोकों में प्रसिद्ध है और अत्यन्त पवित्र है। जगत में (अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज) चार प्रकार के अनन्त जीव हैं, इनमें से जो कोई भी अयोध्याजी में शरीर छोड़ते हैं, वे फिर संसार में नहीं आते अर्थात् जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूटकर भगवान के परमधाम में निवास करते हैं ।।2।।
सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी।।
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा ।।3।।
तुलसीदास जी कहते हैं इस अयोध्यापुरी को सब प्रकार से मनोहर, सब सिद्धियों की देने वाली और कल्याण की खान समझकर मैंने श्रीराम की निर्मल कथा का आरम्भ किया है, जिसके सुनने से काम, मद और दम्भ नष्ट हो जाते हैं ।।3।।
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ।।
मन करि बिषय अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहिं सर परई ।।4।।
इसका नाम रामचरित मानस है, जिसको कानों से सुनते ही परमशांति मिलती है। मन रूपी हाथी विषय रूपी दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरित मानस रूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो जाए ।।4।।
रामचरित मानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन ।।
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ।।5।।