काम-विवाह

     नारद जी ने कहा- हे महापण्डित विष्णुजी के शिष्य, हे लोकों के कल्याणकर्ता प्रभु ब्रह्माजी। यह तो शिवलीला की अमृतमय अद्भुत कथा आपने सुनायी, परन्तु इसके पश्चात् हे तात, फिर क्या हुआ, वह भी आप कहिये, क्योंकि शम्भु की कथा सुनने की मेरी बड़ी इच्छा है।
     ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद, जब शिवजी अपने स्थान को चले गये और ब्रह्माजी भी अन्तर्धान हो गये तब दक्षजी ने कन्दर्प से कहा कि हे कन्दर्प, तुम्हारे ही समान गुण वाली मेरी देह से यह रूप गुण युक्त कन्या उत्पन्न हुई है, तुम इसे अपनी भार्या के रूप में ग्रहण करो। हे काम, यह सदा तुम्हारी सहचारिणी और यथा काम तुम्हारे वश में रहने वाली है।
     ऐसा कह कर दक्ष ने अपनी देह के पसीने से उत्पन्न स्त्री का रति नाम रखकर उसे कन्दर्प के आगे कर, दे दिया। दक्ष की परम सुन्दरी पुत्री से विवाह कर काम बड़ा प्रसन्न हुआ। सम्पूर्ण सुन्दरताओं का सदन ऐसे लक्ष्मी की भांति शोभायमान, बारहों आभूषणों से युक्त, षोडश श्रृंगार वाली, सब लोकों को मोहित करने वाली और अपनी शोभा से दसों दिशाओं को शोभित करने वाली ऐसी रति को देखकर काम ने बड़ी उत्सुकता से उसे ऐसे ग्रहण किया मानों प्रेम से आई हुई लक्ष्मी को विष्णु भगवान् ने ग्रहण किया हो। उस समय काम आनन्द के मारे ब्रह्माजी के दिये हुए शाप को भूल गया और मोहित होने के कारण दक्षजी से कुछ कह न सका। हे तात नारद, उस समय सुखवर्द्धक महान् उत्सव हुआ। अपनी कन्या को प्रसन्न देखकर दक्ष भी बड़े प्रसन्न हुए। काम भी अत्यन्त सुख पाकर सब दुःखों से रहित हो गया। दक्ष-पुत्री रति भी काम को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। फिर तो जैसे योगी विद्या को ग्रहण करता है वैसे ही रति-पति कामदेव ने रति को हृदय से ग्रहण किया और रति भी श्रेष्ठ पति को पाकर वैसे ही अत्यन्त प्रसन्न हुई जैसे लक्ष्मी विष्णु भगवान् को पाकर प्रसन्न हुई हों।
     इति श्रीशिव महापुराण द्वितीय सती खण्ड का चौथा अध्याय समाप्त। क्रमशः

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