गतांक से आगे, अट्ठारहवां अध्याय, कथा-प्रसंग
काम द्वारा उत्पन्न काम-विकार
ब्रह्माजी बोले- वहां पहुंच कर अभिमानी कामदेव वसन्त को साथ लिये शिव-संमोहन का विस्तार करने लगा, उस वन के सब वृक्ष फूल गये। आम के बौर प्रकाशित हो गये। अशोक वाटिका खिल गयी। कामोद्दीपक सुगन्धित वायु बहने लगी। फूलों पर भौंरे गुंजार करने लगे। वे मदन के वेग को बढ़ाने लगे। आम्रवृक्ष की डालियों पर बैठी कोकिलाओं का मधुर शब्द होने लगा। इस प्रकार वसन्त मुनियों को प्रेरित करने लगा जिसका काम-विस्तार वनवासी मुनियों को भी असह्य हुआ। अचेतकों को भी काम की इच्छा हुई और सचेतकों की तो बात ही क्या है? वसन्त का दुःसह प्रभाव फैला। सबमें काम का उद्दीपन हुआ। तब असमय में भी वसन्त का आगमन देख भगवान् शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ। परन्तु वे पूर्ववत् अपनी तपस्या में फिर लीन हो गये। तब रति सहित कामदेव आग्र बाण चढ़ाकर शिव के वाम भाग में जा बैठा। श्रृंगार भी अपने गणों सहित शिवजी के समीप स्थित हुआ। मनोज होते हुए भी कामदेव शिवजी के बाहर भी उनका कोई छिद्र देखने के लिए खड़ा रहा, परन्तु उनमें ऐसा कोई भी दोष न पाया जिससे वह उनमें प्रवेश करता। इससे वह बहुत भयभीत हो गया और सामने से हट भी न सका।
इसी समय पार्वजी जी वहुत से फल लेकर शंकर जी की पूजा करने आयीं, उनके रूप सौन्दर्य का वर्णन नहीं हो सकता। मानव सौन्दर्य से परे की बात है। सैकड़ों वर्षों में भी कोई उनके सौन्दर्य को नहीं कह सकता। पार्वतीजी के पहुंचते ही शंकरजी ने क्षण भर के लिए अपना ध्यान त्याग दिया और एक क्षण के लिए वहां स्थित हो गये। इस छिद्र को पाकर कामदेव ने उन पर अपने बाण चला उन्हंे प्रसन्न करना आरम्भ किया। कई बाण छोड़े। उनकी सुगन्धि भी शंकरजी को लगी उस समय पार्वतीजी उनकी पूजा कर रही थीं और जब पूजन कर उन्होंने उनका दर्शन किया तो शंकरजी ने भी उनकी ओर देखा। तब स्त्री-स्वभाव से अथवा लज्जा से उन्होंने अपने अंगों को संकुचित कर लिया। उन्हंे संकुचित होते देख शिवजी उनकी रूप रचना की प्रशंसा करने लगे। उन्होंने प्रत्यक्ष कहा कि सृष्टि का लालित्य मानो विधाता ने इसी में एकत्र कर इसका निर्माण किया है। इसमें सन्देह नहीं कि यह सर्वांग सुन्दरी है। अहो, इस अद्भुत रूपवाली पार्वती को धन्यवाद है कि जिसके समान त्रैलोक्य में भी कोई सुन्दर नारी नहीं है। यह तो मुनियों के भी मन को मोहित करने वाली और महान् सुख को बढ़ाने वाली है। ऐसा वर्णन कर शंकरजी ने ज्योंही वस्त्रों के भीतर हाथ चलाया त्योंही पार्वतीजी स्त्री-स्वभाव से लज्जित हो दूर जा खड़ी हुईं। फिर बार-बार वहीं से शंकरजी पर कटाक्ष करने लगीं। वे कुछ मुस्कुराती हुई उनके सिकुड़े अंगों पर भी दृष्टिपात करती। तब पार्वजी जी की ऐसी चेष्टा देख शंकरजी मोहित हो गये। उन्होंने कहा, जब इसके दर्शन से ही महान् आनन्द होता है तब आलिंगन से सुख की सीमा नहीं होगी। इस प्रकार उन्होंने भी पार्वतीजी की एक पूजा की। परन्तु ज्योंही उन्हें चेतना आयी वे अपने पर पश्चाताप करने लगे। उन्होंने कहा-क्या मुझ ईश्वर को भी काम विकृत करेगा? यदि मुझे ईश्वर ने ही किसी के अंग का स्पर्श कर लिया तो अन्य असमर्थ पुरुष क्या नहीं करेंगे। ऐसा कह वह वैराग्य को प्राप्त हो, पार्वतीजी के पर्यंक आसादन से विरत हो गये। सर्वात्मा परेश कहीं पतित नहीं हो सकते।
इति श्रीशिवमहापुराण तृतीय पार्वती खण्ड का अट्ठारहवां अध्याय समाप्त।