कर्मयज्ञ, भक्ति और साम आदि का वर्णन

गतांक से आगे... 
कथा-प्रसंग
   नारदजी ने कहा -हे ब्रह्माजी, इसी बात को अच्छी तरह फिर कहिये। ब्रह्माजी ने कहा- एक समय मैं सब ऋषियों को साथ लेकर क्षीरसागर के तट पर भगवान विष्णु की स्तुति करने गया और जब हम सबने उनकी स्तुति की तो उन्होंने शिवजी के चरणों का ध्यान करके प्रसन्न होकर कहा ‘हे ब्रह्मादि देवताओ, तुम लोग क्यों आये हो? तुम्हारा क्या कार्य है, मुझसे कहो, ब्रह्माजी कहते हैं कि, जब विष्णु भगवान ने इस प्रकार पूछा तो देवताओं ने निवेदन किया कि  हे महाराज, दुःखों को ेदूर करने वाली सेवा किसकी करनी चाहिए?
    तब भगवान बोले- हे ब्रह्मन, यह तो तुम पहले भी देख चुके हो और अब भी देखते हो फिर उसको क्यों पूछते हो? किन्तु कार्य में तत्पर तुम्हारे और देवताओं के लिये फिर कहता हूं, ध्यान से सुनो। भगवान शंकर ही सब दुखों के दूरकर्ता और परम सेव्य हैं। मेरी और विशेष कर ब्रह्माजी की भी यही सम्मति थी। सुख चाहने वालों को कभी भी शिवजी की पूजा नहीं छोड़नी चाहिए। देवाधिदेव महेश्वर की लिंग पूजा को त्यागने से ही तो तार के पुत्र भी अपने बान्धवों सहित नाश को प्राप्त हुए। इस कारण लिंग मूर्तिधारी का सदैव पूजन करना चाहिए। शिव की पूजा से ही हम, तुम तथा सभी देवता श्रेष्ठ हुए हैं। हरि आप इस बात को कैसे भूल जाते हैं? जैसे भी हो लिंग की पूजा करे। सकाम शिवार्चन करना ही योग्य है। वही बड़ी हानि, वही महाछिद्र, वही अन्धता और मुग्धता है जिस मुहूर्त और क्षण में शिवार्चन नहीं होता। शिवजी का भक्त कभी दुःखी नहीं होता। मनुष्य को संसार के सारे सुख तो शिवजी की पूजा से प्राप्त होते ही हैं, अपितु मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। ब्रह्माजी कहते हैं कि जब इस प्रकार विष्णु भगवान ने कहा तो देवताओं ने उन हरि को प्रणाम किया और सब कर्मों की सिद्धि के लिये लिंगों की प्रार्थना की। तब भगवान ने विश्वकर्मा को बुला कर कहा कि, हे मुनि, मैं तो जीवों के उद्धार में लगा हुआ हूं, तुम मेरी आज्ञा से देवताओं के लिये शिवलिंगों की स्थापना करो।
   ब्रह्मा जी कहते हैं कि विश्वकर्मा ने हरि की आज्ञा से देवताओं के लिये लिंगों की कल्पना कर उन्हें वे लिंग प्रदान किये। पद्मरागमणि का लिंग इन्द्र को, सुवर्ण का कुबेर को, पीतमणि का धर्मराज को, श्याम वर्ण का वरुण को, इन्द्रनीलमणि का विष्णु को और सुवर्णमय लिंग ब्रह्माजी को और चांदी का विश्वेदेवा और वसुओं को बना कर दिया। पीतल का अश्विनी कुमारों को, स्फटिक का लक्ष्मी को, तांबे का आदित्यों को, मोती का चन्द्रमा को और वज्रलिंग ब्राह्मणों को दिया। फिर ब्राह्मण की स्त्रियों को मिट्टी का, नागों को चन्दन का, मक्खन का देवी को, भस्म का योगी को, दधि का यक्षों को और मिटटी का छाया को दिया। इस प्रकार जब सबको लिंग की प्राप्ति हो गई, तब विष्णु जी के वचनों को सुनकर मैं देवताओं सहित अपने लोक में आया और सब ऋषि और देवताओं से फलदायक उसकी पूजा-विधि को बतलाया और कहा कि जब तक ज्ञान न हो जाय तब तक सभी लोग विधिपूर्वक इस प्रकार लिंगों की पूजा करें। क्योंकि उच्चपद पर चढ़ने के लिये प्रतिमा-पूजन परम आवश्यक है। निर्गुण की प्राप्ति के लिये प्रतिमा पूजन ही उसका आश्रय है। इससे सगुण से निर्गुण की प्राप्ति होती है। देवताओं में शिवजी सबसे बड़े हैं, अतः इनके निमित्त प्रतिमा पूजन अवश्य करें। बिना पूजन और दानादिक के पाप लगता है और पूजादिक करने से ज्ञानरूप रंग की उत्पत्ति होती है और विज्ञान प्राप्त हो जाता है। अतएव जब तक ग्रहस्थाश्रम में रहे तब तक प्रतिमा से पंचदेवताओं की पूजा करता रहे अर्थात् सबके मूल शिवजी की ही पूजा करे। क्योंकि मूल के सिंचन से सम्पूर्ण शाखायें भी तृप्त हो जाती हैं किन्तु शाखाओं के सिंचन से मूल कभी तृप्त नहीं होता। विद्वानों को थोड़े ही में यह जान लेना चाहिए कि शिवजी की पूजा करने से सब देवताओं की पूजा हो जाती है। इसलिये सब काम और फलों की प्राप्ति के लिये लोक के कल्याणकारी और सब प्राणियों के हित में तत्पर शिवजी की पूजा करें।
   इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्र संहिता का बारहवां अध्याय समाप्त। क्रमशः

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