गतांक से आगे...
सातवां अध्याय
कथा-प्रसंग
कमल से उत्पन्न लिंग का आविर्भाव
ब्रह्माजी बोले- श्री नारायण देव के शयन करने पर शिवजी की इच्छा से उनकी नाभि में से एक विशाल कमल की उत्पत्ति हुई, जिसका अनन्त योजन का विस्तार और अनन्त योजन की ऊंचाई थी। इसके साथ ही साम्ब अर्थात् पार्वती सहित शिवजी ने मुझे उत्पन्न किया। इस प्रकार मैं हिरण्यगर्भ उस कमल से प्रकट हुआ जिसके चार मुख, लाल मस्तक पर त्रिपुण्ड धारण किये हुए मैंने उस कमल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देखा। उस समय मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं था जिससे मैंने न तो यह जाना कि मैं कौन हूं और मुझे किसने उत्पन्न किया है। कुछ ही क्षण प्रश्चात् मुझे बुद्धि प्राप्त हुई और कमल के नीचे मैं अपने कर्ता को ढूंढने लगा। हे मुनि, तब एक-एक नाल को पकड़ता हुआ सौ वर्ष तक मैं नीचे की ओर चला। किन्तु मैंने वहां भी कमल की जड़ को नहीं पाया। फिर मैं कमल के ऊपर जाने की इच्छा करने लगा। हे मुनि, जब इस नाल के मार्ग द्वारा मैं ऊपर आया तो कमल की कली मिली। वहां मुझे तप करने की मंगलमय वाणी सुनाई पड़ी। इस मोहनाशक आकाशवाणी को सुनकर मैं अपने पिता के दर्शन की इच्छा से फिर तप करने लगा और बारह वर्ष तक कठिन तप किया। पश्चात् चार भुजाधारी, सुन्दर नेत्र वाले भगवान् विष्णु प्रकट हुए। वे अपने सब आयुधों से सम्पन्न, पीताम्बरधारी, मुकुट आदि महान भूषणों से सम्पन्न थे जिन पर करोड़ों कामदेवों के समान कान्ति छाई हुई थी, उन्हें मैंने मोहित होकर देखा। सत, असत्मय उन महाभुज नारायण भगवान को देखकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ और शिव की माया से मोहित होकर अपने पिता को न जान कर उनसे बोला कि तुम कौन हो? फिर मैंने अपने हाथ से उस सनातन पुरुष को जगाया परन्तु मेरे तीव्र हाथों द्वारा जगाये जाने पर भी वह क्षणमात्र के लिये ही जागे और मुख से बोले कि तुम निर्भय हो जाओ, मैं तुम्हारी सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करूंगा। हे देवर्षि, तब उन मुस्कुराते हुए विष्णु जी से ऐसे वचन सुनकर रजोगुण से विरोध मान कर मैंने उन जनार्दन से कहा कि हे निष्पाप, क्या तुम नहीं जानते कि मैं सबके संहार का कारण हूं और तुम शिष्य जैसा मुझ पर शासन करते हो। मैं साक्षात् जगत् का कर्ता, प्रकृति का प्रवर्तक, सनातन, अज, ब्रह्मा और विष्णु से उत्पन्न होने वाला विश्व की आत्मा हूं। वेद मुझे-स्वयम्भू, स्वराट्, परमेष्ठी और श्रेष्ठ कहते हैं। हे नारद, जब मैंने ऐसा कहा तो रमापति भगवान मुझ पर बहुत क्रुध हुए और कहने लगे कि, अवश्य तुम लोककर्ता को मैं जानता हूं। परन्तु तुम तो मेरे ही अविनाशी अंग से उत्पन्न हुए हो। क्या अब तुम निर्दोष नारायण जगन्नाथ को भूल गये? निःसन्देह तुम मेरे ही नाभि-कमल से तो उत्पन्न हुए हो। परन्तु इसमें तुम्हारा अपराध भी तो नहीं है। क्योंकि मैंने तुम्ह्रे अपनी माया से मोहित कर दिया है।। हे चतुर्मुख, यह मेरा वचन सत्य है कि सब देवों का ईश्वर मैं ही हूं। मैं ही सबका कर्ता, भर्ता और व्यापक हूं। मैं ही अद्वितीय परब्रह्म, पितामह और परतत्व हूं। यह सब कछ मुझमें चराचर जगत स्थित है। तुम मेरी शरण में आओ। मैं तुम्म्हारी सब दुःखों से रक्षा करूंगा। ब्रह्माजी कहते हैं कि जब भगवान विष्णु ने ऐसा कहा, तब मैं ब्रह्मा क्रुध होकर ललकार कर उनसे बोला कि तुम कौन हो? बहुत बकवाद ना करो। तुम परब्रह्म ईश्वर नहीं हो। तुम्हारा भी कोई कर्ता होगा। शंकर जी की माया ने मुझे मोहित कर दिया था। मैंने हरि से रोमांचकारी युद्ध आरम्भ कर दिया। तब मेरे और उनके बीच में लिंग प्रकट हुआ। हम दोनों ने उस देव को नमस्कार कर अपना युद्ध समाप्त किया और प्रार्थना की कि, हे महाप्रभो, हे महेशान, आप शीघ्र ही हमें अपने वास्तविक रूप का दर्शन दीजिये। इस प्रकार वे हम दोनों के मन में स्थित हुए और शिवजी को नमस्कार करते हुए हमारा सौ वर्ष का समय व्यतीत हो गया। इति श्री शिव महापुराण द्वितीय रुद्र संहिता का सातवां अध्याय समाप्त। क्रमशः